SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ थोड़ी देर में ही मैंने कहना प्रारम्भ किया- 'हे भगवन् ! वह देश, नगर, गाँव अथवा प्रदेश कृतार्थ हो जाता है, जहाँ आप जैसे लोगों की चर्चा भी आ जाती है. फिर आपके स्वयं आने से तो कहना ही क्या ? इसलिए आपके आगमन से मैं अनुग्रहीत हूँ ।' उन जटाधारी ने कहा- 'निरीह साधु लोग भी गुरणों से आकृष्ट होकर भक्तजनों में पक्षपात करते हैं । अत: तुम्हारे गुणों से कौन आकर्षित नहीं होता ? और भी, तुम्हारे जैसे लोगों के आ जाने पर हम जैसे अपरिग्रही साधु लोग तुम्हारा क्या स्वागत करें ? क्योंकि मैंने जन्म से ही परिग्रह नहीं किया । द्रव्य, पैसा आदि के बिना लोक व्यवहार पूरा नहीं होता है ।' ऐसा सुनकर मैंने कहा - 'हे भगवन् ! आपको लोक व्यवहार से क्या प्रयोजन ? आपकी आशीष ही लोक का आतिथ्य है ।' तब फिर उन जटाधारी, ने कहा'हे महाभाग ! गाथा - 1. निर्मल जन में भी गुरुजनों की पूजा, भक्ति और सम्मान युक्त विनय दान के बिना संभव नहीं होती है । 2. दान धन के बिना नहीं होता, धर्मरहित व्यक्तियों धन नहीं होता और विनय से रहित लोगों के धर्म नहीं, तथा अभिमान से युक्त लोगों के विनय नहीं होती है । ऐसा सुनकर मैंने कहा, भगवन् ! यह ठीक है, किन्तु आप जैसे लोगों का देख लेना ही दान है, आदेश ही सम्मान है । अत: आदेश करें कि आपके लिए मुझे क्या सेवा करनी चाहिए ?' भैरवाचार्य ने कहा- 'हे महाभाग ! आप जैसे परोपकार में तल्लीन लोगों का याचक-जन को देख लेना ही मनोरथ की पूर्ति होना है । बहुत दिनों से किये जा रहे मेरे एक मन्त्र की सिद्धि तुम्हारे द्वारा ही होनी है । यदि एक दिन समस्त विघ्नों को दूर करने के लिए आप आना स्वीकार लें तो आठ वर्ष के मन्त्रजाप का मेरा परिश्रम सफल हो जायेगा ।' प्राकृत गद्य-सोपाद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 169 www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy