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________________ 2. 'यदि मेरे द्वारा अच्छी तरह से पालन किये गये इस व्रत विशेष का कोई फल हो तो प्रत्येक भव में मेरा जन्म इस गुणसेन के वध करने के लिए हो। 3. जो पुरुष अपने प्रिय-जनों के लिए उनका प्रिय (कार्य) एवं शत्रुओं के लिए अप्रियकार्य नहीं करता है तो केवल. माता के यौवन को नष्ट करने वाले उस व्यक्ति के जन्म से क्या लाभ ? 4. यह पापी राजा बिना किसी अपराध के बचपन से ही मेरा शत्रु है। अतः मैं इसका अप्रिय करूंगा।' 5. इस प्रकार निदान करके उस (बैर भावना के) स्थान से न लौटते हुए, क्रोध की अग्नि में जलते हुए उसे अग्निशर्मा ने अनेक बार ऐसे भाव किये। इसी बीच में वह तपोवन में पहुंचा । वहाँ अकेला बैठा हुआ वह अपमान के कारण पुनः सोचने लग गया-'अहो ! उस राजा का मेरे ऊपर कितना शत्रुभाव है ? उस प्रकार बार-बार निमन्त्रण करके और पारणा पूरी न कराके वह मेरा उपहास करता रहा। अथवा मैंने आहार-भाव की आसक्ति सर्वथा नहीं छोड़ी इसलिए मेरा इतना उपहास किया जा सकता है । अत: जिसमें मात्र तिरस्कार समाया हुआ है ऐसा आहार अब में जीवन भर नहीं करूंगा।' इस प्रकार निश्चय कर उसने जीवनभर के लिए महा उपवास व्रत ग्रहण कर लिया। यह सब जानकर कुलपति ने उसे कहा-'हे वत्स ! यदि तुमने आधार भी छोड़ दिया है तो अब तुम्हें आज्ञा देने का समा नहीं रहा। तपस्वी तो सत्य प्रतिज्ञा वाले होते हैं । किन्तु तुम्हें राजा के ऊपर क्रोध नहीं करना चाहिए । क्योंकि गाथा- 6. सब लोग पूर्वजन्मों में किये गए कर्मों के फलरूपी परिणाम को प्राप्त करते हैं । अपराध अथवा गुणों में तो दूसरा व्यक्ति मात्र निमित्त होता 000 प्राकृत गद्य-सोपान 163 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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