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________________ एक बार वह नौकरानी दुखी दिखायी दी। कपिल ने पूछा--- 'तुम किस कारण दुखी हो ?' उसने कहा- 'मेरे पास पत्ते और फूल खरीदने के लिए भी उनकी कीमत नहीं है । सखियों के बीच में मुझे नीचा देखना पड़ता है। अतः तुम मेरे लिए कुछ धन लाओ । यहाँ धन नाम का सेठ है । प्रातःकाल के पहले ही जो उसे सबसे पहले बधाई देता है, वह उसके लिए दो माशा स्वर्ण देता है । वहाँ जाकर तुम बधाई दो।' 'ठीक हैं' उसके ऐसा कहने पर उस नौकरानी ने सुबह होने के बहुत पहले ही उसे वहाँ भेज दिया। जाते हुए वह सिपाहियों के द्वारा पकड़ा गया और बांध लिया पया। तब प्रात:काल में राजा प्रसेनजित के पास उसे ले जाया गया। राजा ने उससे पूछा । उसने सरलता से सब कुछ कह दिया। राजा ने कहा- 'जो तम मांगो वह मैं देता है। कपिल ने कहा- 'सोचकर मागूगा।' राजा के द्वारा 'ठीक है। ऐसा कहने पर वह कपिल अशोक वाटिका में सोचने लगा- दो माशा सोने से बस्त्राभूषण भी न होंगे । इसलिए सौ स्वर्ण मांगूगा ।, किन्तु उनसे भी महल, रथ आदि न होंगे । अतः हजार स्वर्ण मांगूगा । इनसे भी बाल-बच्चों के विवाह - एवं जातिभोजन आदि नहीं हो सकेंगे। इसलिए लाख (स्वर्ण) मांगता है। यह भी मित्र, स्वजन, बन्धु लोगों के सम्मान के लिए, दोन, अनाथों के दान के लिए, विशिष्ट भोगउपभोगों के लिए पर्याप्त नहीं है । अत: एक करोड़ अथवा हजार करोड़ मांगता हूं।' इस प्रकार से चिन्तन करता हुआ कपिल शुभ कर्मों के उदय से उसी क्षण ही शुभभाव को प्राप्त हो गया और वैराग्य से युक्त वह सोचने लगा- 'अहो ! लोभ का फैलाव ? दो माशा स्वर्ण के कार्य से आया और लाभ प्राप्त होते देखकर करोड़ों से भी मनोरथ पूरा नहीं हो रहा है । दूसरी बात यह भी है कि विद्या पढ़ने . के लिए यहाँ विदेश में आया हुआ मैं जिस किसी प्रकार से माता की अवहेल्द ना करके, उपाध्याय के हितकारी उपदेशों को कुछ न गिनकर, कुल का अपमान करके इस लोभ से जानते हुए भी मोहित हो गया।' ऐसा सोचकर वह कपिल राजा के घस आया। राजा ने पूछा -- क्या सोचा ?' तब उसने अपने मनोरथ को , विस्तार से कहे दिया। 000 144 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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