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________________ गाथा 1- "अपने उपकार को चाहने वाला कौआ भी पेट भर लेता है। अतः (महापुरुषों को) सम्पत्ति पाकर सभी प्राणियों का उपकार करना चाहिए।' 'इसलिए इसका उपकार करता हूँ।' - ऐसा सोचकर वह कहता है- 'क्या तुम्हें विद्या दू अथवा विद्या से अभिमन्त्रित बड़ा ?' विद्या की साधना के आचरण से डरने वाले, मंदबुद्धि एवं भोग की इच्छा करने वाले उस ग्रामीण ने कहा'विद्या से अभिमन्त्रित घड़ा दे दें।' उसने दे दिया। वह ग्रामीण उसे लेकर प्रसन्न एवं संतुष्ट मन से गांव चला गया। उसने विचार किया गाथा 2- 'उस अत्यधिक लक्ष्मी से क्या लाभ, जो अन्य देश में मिले, जिसमें मित्रों का साथ न हो और जिसे शत्रु न देखें।' तब वह बन्धुओं और मित्रों के साथ इच्छानुसार भवन बनाकर भोगों को भोगता हुआ रहने लगा। कुछ समय बाद वह ग्रामीण अत्यन्त संतोष से कंधे पर घड़े को रखकर'इसके प्रभाव से मैं बन्धुओं के बीच में आनन्द करता हूँ। ऐसा कहकर शराब पिये हुए नाचने लगा । उसकी असावधानी से वह घड़ा टूट गया। विद्या से प्राप्त सब सम्पत्ति भी तष्ट हो गयी। बाद में दूसरों की सहायता से प्राप्त नैभव को नष्ट कर देने वाला वह ग्रामीण दुखों का अनुभव करने लगा । यदि उस समय उसने वह विद्या ग्रहण की होती तो टूटे हुए पड़े को पुनः बना लेता। 000 पाठ ६ : लोभ का अन्त नहीं उस युग और उस समय में कौशाम्बी नामक नगरी थी। राजा जितशत्रु था। विद्या का आधार-स्तम्भ काश्यप उपाध्याय राजा के द्वारा सम्मानित था। उसको नौकरी दे दी गयी। उस काश्यप के यशा नामक पत्नी थी। उनके कपिल नामक पुत्रः था। 142 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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