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________________ उपलब्ध नहीं हैं। उनमें से केवल मृच्छकटिक प्रहसन आज उपलब्ध है, जिसमें सर्वाधिक प्राकृत भाषामों का प्रयोग हुआ है। मृच्छकटिकं के गद्य सरस एवं काव्यात्मक हैं। प्राकृत में सम्पूर्ण रूप से लिखे गये सट्टकों को परम्परा बाज उपलब्ध है। 10वीं शताब्दी के राजशेखर द्वारा लिखित सहक कर्पूरमंजरी प्राकृत का प्रतिनिधि सट्टक है। यह नाटक का लवु संस्करण कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त 17-18वीं शताब्दी में भी प्राकृत में कई सडक लिखे गये हैं। इनकी विषयवस्तु प्रेमकथा है । इन सट्टकों में भी प्राकृत गद्य का अच्छा प्रयोग हुमा है। इनके अतिरिक्त प्राचीन नाटककारों के नाटकों में भी अधिकांश पात्र प्राकृत बोलने वाले हैं । अतः बिना प्राकृत के ज्ञान के उन नाटकों को समझना कठिन है। महाकवि भास के नाटक प्रविमारक में विदूषक सन्ध्या का वर्णन करते हुए कहता है अहो अरस्स सोहासंपदि । अत्थं आसादिदो भअवं सुम्यो दीसह दहिपिंडपंडरेसु पासादेसु अग्गरपणालिन्देसु पसारिअगुलमहुरसंगदो विभ । कालिदास के नाटक अभिज्ञानशाकुन्तल में शकुन्तला प्राकृत में वातालाप करती है । दुष्यन्त के प्रेम को वह नहीं जानती, किन्तु अपने हृदय में उसके प्रति प्रेम का अनुभव करती हुई विरह में दुखी शकुन्तला कहती है तुज्झ रण जाणो हिअ मम उरण कामो दिवापि रत्तिमि । णि ग्धिरण तबइ बली' तुइ वुत्तमणोरहाइ अगाई ।। - इसी तरह श्रीहर्ष, भवभूति, विशाखदत्त आदि भारत के प्राचीन नाटककारों के नाटकों में अधिकांश पात्र प्राकृत बोलते हैं। उनकी उक्तियां प्राकृत गद्य-साहित्य की महत्त्वपूर्ण निधि हैं । प्राकृत गड-सोपान 139 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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