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रणव-बिस-कसाय-संसुद्ध-कंठ-कल-मणोहरो णिसामेह । सरय-सिरि-चलण-उर-रामो इव हंस-संलावो ॥७॥ संचरइ सीयलायंत-सलिल-कल्लोल-संग-रिणव्ववियो । दर-दलिय-मालई-मुद्ध-मउल-गंधुद्ध
रोप वणो ।।८।। एसा वि दस-दिसा-वह-वयण-विसेसावलि व्व सर-सलिले । विम्वल-तरंग-दोलंत-पायवा सहइ वणराई ।।६।। सासणमिव पुण्णाणं जम्मुप्पत्ति व्व सुह-समूहाणं ।
आयरिसो अायाराण सइ सुछेत्तं पिव गुणाणं ।।१०।। तत्थेरिसम्मि पयरे णीसेस-गुणावगूहिय-सरीरो। भुवरण-पवित्थरिय-जसो राया सालाहणो णाम ।।११।। जो सो अविग्गहो वि ह सव्वंगावयव-सुन्दरो सुहो। दुइंसगो वि लोयाण लोयणाणन्द-संजणणो ॥१२॥ कुवई वि वल्लहो पणइणीण तह रणयवरो वि साहसियो। पर-लोय-भीरुप्रो वि हु वीरेक्क-रसो तह च्चेय ।।१३।। सूरो वि ण सत्तासो सोमो वि कलंक-वज्जिो णिच्चं । भोई वि रण दोजीहो तुगो वि समीव-दिण्ण-फलो ॥१४॥ रिणय-तेय-पसाहिय-मंडलस्स ससिरणो व्व जस्स लोएण। अक्कंत-जयस्स जए पट्ठी रण परेहि सच्चविया ॥१५॥ हियए च्चेय विरायन्ति सुइर-परिचिंतिया वि सुकईण । जेण विणा दुहियाण व मणोरहा कव्व-विणिवेसा ॥१६॥
000 * 'लीलावई' -सं०- डॉ० ए० एन० उपाध्ये, से उद्धत । गाथानुक्रम-१२, १३, १६,
२२, २३, २५ से २८, ४८, ६४ से ६७, ६६ एवं ७२ ।
प्राकृत काव्य-मंजरी
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