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________________ ३२४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् असदेतत् – एवंकल्पनायां पदार्थानामपि वाक्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वाऽसम्भवात् । तथाहि – 'घटः पटः कुम्भः' इत्यादिपदेभ्यो यथाऽन्योन्याननुषक्तस्वतन्त्रसामान्यात्मकार्थप्रतिपत्तिस्तथा सम्बद्धपदसमूहश्रवणादपि किं न तथाभूतसामान्यप्रतिपत्तिर्भवेत् ? न हि ततः सामान्यमात्राधिगमे तत्परित्यागतो विशिष्टार्थप्रतिपत्तौ निमित्तमस्ति । न वाऽपेक्षा-सन्निधानादिकं पदार्थानां तत्प्रतिपत्तौ निमित्तम्, पदार्थस्य पदार्थान्तरं प्रत्युत्पत्तौ प्रतिपत्तौ वाऽपेक्षादेरयोगात् तस्य सामान्यात्मकत्वेनोत्पत्तेरसम्भवात् स्वपदेभ्य एव प्रतिपत्तेः तत्रापि पदार्थान्तरापेक्षाद्यनुपपत्तेः। 'अर्थशक्तित एव ततो विशेषप्रतिपत्तिः' इति चेत् ? तर्हि पदार्थानामेकार्थसम्भवा प्रतिपत्तिर्यस्य तस्यापि ततस्तत्प्रतिपत्तिर्भवेत् । न च सामान्यत्यागे किञ्चिद् निबन्धनं बाधकाभावात्, सत्यर्थित्वे उभयप्रतिपत्ति-प्रवृत्ति स्याताम् । न च वाक्यार्थप्रत्यय एव बाधकः, तेन तस्य विरोधाभावात् सामान्य-विशेषयोः साहचर्यात् सामान्यप्रत्ययस्य च विशेषप्रतिपत्तिं प्रति पर भी पूर्व में कहे युक्तिसंदर्भ के अनुसार पदार्थज्ञान से वाक्यार्थबोध होता है। इसी अभिप्राय से तो बौद्धवादियों ने वाक्यार्थ के विचार में शामिल होने के बजाय, अपने अनुमान-प्रदर्शन में पद-पदार्थ का ही उल्लेख किया है। मीमांसक कुमारिल ने अपने श्लोकवार्त्तिक ग्रन्थ में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए कहा है – “सम्बन्ध (यानी प्रतिबन्ध) ग्रहण किये विना भी पदार्थ के अवलम्बन से वाक्यार्थ विषयिणी बुद्धि उत्पन्न होती है, इसीलिये वह अनुमान से भिन्न है, जैसे इन्द्रियजन्य बुद्धि । – अत्यन्त अदृष्ट अर्थ सभर वाक्यों (और उस के सम्बन्ध के अदृष्ट होने पर भी) के विषय में भी पदार्थज्ञानमात्र से अर्थप्रतीति होती है यह देख कर ही बौद्धों ने अनुमान से शाब्दबोध की भिन्नता के डर से पद और अर्थ के अभेद सम्बन्ध की ही चर्चा का क्लेश किया है। (वाक्य की चर्चा जानबुझ कर छोड दिया है।)" * सामान्यवादी के मत में विशिष्ट अर्थबोध की दुर्घटता * उत्तरपक्ष :- पूर्वपक्षी का यह विस्तृत कथन गलत है। आप ऐसी कल्पना करेंगे कि वाक्य वाक्यार्थज्ञान में हेतु नहीं है तो पदार्थ (? पद) भी वाक्यार्थबोध का हेतु नहीं बन सकेगा। कैसे यह देखिये - घट, पट, कुम्भ इत्यादि पदों से आप के मतानुसार परस्पर असम्बद्ध स्वतन्त्र घटत्वादि सामान्यरूप अर्थ का ही भान होता है, तो ऐसे ही परस्परसम्बद्ध पद समुदाय के श्रवण से भी स्वतन्त्र सामान्यात्मक अर्थ का बोध येगा ? जब वाक्यगत पदश्रवण से सिर्फ सामान्य का ही अवबोध होता है, तब उस का त्याग कर के विशिष्ट अर्थ का बोध मानने में अधिक निमित्त क्या है ? यदि कहें कि पदार्थों की अपेक्षा, संनिधि आदि ही विशिष्ट अर्थ बोध का निमित्त है – तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि आप के मत से पदार्थ सामान्यात्मक है, एक सामान्य पदार्थ को अपनी उत्पत्ति या बोधन में अन्य सामान्य की अपेक्षा आदि रखने की जरूर ही नहीं है। सामान्य तो नित्य माना है अतः उस की उत्पत्ति का सवाल ही नहीं है, और उस का बोध तो अपने वाचक पद से ही हो जाने वाला है अतः बोध के लिये भी अन्य पदार्थापेक्षा नहीं है। यदि कहा जाय – अर्थगत विशेष शक्ति से ही वाक्यगत पदों के विशेष अर्थ का बोध होता है - तो जिस को पदार्थों के ऐकार्थ्य (यानी मिल कर एकार्थबोधकत्व) मूलक अभेद बोध होता है उस व्यक्ति को ऐकार्य के विना भी अर्थगत शक्ति से वाक्यार्थ का बोध हो जायेगा। हकीकत तो यह है कि वाच्यार्थ में बाध होने पर अन्य अर्थ का भान मान्य होता है, किन्तु आप के मतानुसार पदों से सामान्य अर्थ के भान में कोई बाध तो है नहीं जिस से कि उस त्याग करना पडे। दोनों पदों से दो सामान्य का बोध, अपेक्षित होने पर हो सकता है और अपेक्षानुसार प्रवृत्ति भी हो सकती है। यदि कहें कि विशेषरूप से वाक्यार्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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