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________________ २९८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तद् भवत्येव । न च हिंसातः स्वर्गादिसुखप्राप्तावसुखनिर्वर्त्तकक्लिष्टकर्महेतुता असंगता, नरेश्वराराधननिमित्तब्राह्मणादिलाभजनितसुखसंप्राप्तौ तद्वधस्यापि तथात्वोपपत्तेः। अथ ग्रामादिलाभो ब्राह्मणादिवधनिर्वर्त्तितादुष्टनिमित्तो न भवति तर्हि स्वर्गादिप्राप्तिरप्यध्वरविहिताहिंसानिर्वर्त्तिता न भवतीति समानम् । ___ अथाश्वमेधादावलभ्यमानानां छागादीनां स्वर्गप्राप्तेः न तद्धिंसा हिंसेति – तर्हि संसारमोचकविरचिताऽपि तत एव हिंसा न हिंसा स्यात्, देवतोद्देशतो म्लेच्छादिविरचिता च ब्राह्मणगवादिहिंसा च न हिंसा स्यात् । अथ तदागमस्याप्रमाणत्वान्न तदुपदेशजनिता हिंसा अहिंसेति। ननु वेदस्य कुतः प्रामाण्यसिद्धिः ? न गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वात्, परैस्तस्य तथाऽनभ्युपगमात् । नाऽपौरुषेयत्वात् तस्याऽसम्भवात् । तन्न प्रदर्शिताभिप्रायाद् विना हिंसातो धर्माऽवाप्तिर्युक्ता। यदि कहा जाय – वेदविहित हिंसा में वेदवाक्य से जब स्वर्गादिसुखप्राप्तिफल सिद्ध है तब उस में दुःखजनकक्लिष्टकर्मबन्ध की हेतुता मानना उचित नहीं है। – तो यह ठीक नहीं है। कोई पुरुष किसी नरेन्द्र को प्रसन्न करने के लिये उस नरेन्द्र के दुश्मन बने हुए ब्राह्मण का वध करता है तब खुश हो कर राजा उस को गाँव आदि सम्पत्ति बक्षिस देता है। यहाँ ब्राह्मणहत्या से सम्पत्ति आदि सुख का लाभ हुआ उस का मतलब यह नहीं है कि ब्राह्मणहत्या में दुःखजनककर्मबन्धहेतुता रद्द हो जाय । यदि कहा जाय – ब्राह्मण हत्या से गाँव आदि सम्पत्ति का लाभ, हत्याजनित अदृष्टमूलक नहीं होता, इस लिये वहाँ क्लिष्टकर्मबन्ध हो सकता है जब कि यज्ञादि की हिंसा से स्वर्गादिसुख की प्राप्ति हिंसाजनित अदृष्टमूलक होती है इस लिये यहाँ क्लिष्टकर्मबन्ध नहीं होगा। - तो यह ठीक नहीं है। यहाँ भी कह सकते हैं कि यज्ञगत हिंसा से स्वर्गादि की प्राप्ति भी वेदविहित हिंसाजनित अदृष्टमूलक नहीं है (किन्तु किसी देवतादि की प्रसन्नता आदि से ही हो सकती है।) अतः वेदविहित हिंसा से क्लिष्टकर्मो का बन्ध होना दुनिर्वार है। * वेदमत एवं संसारमोचकमत में क्या विशेष ? * यदि कहा जाय – अश्वमेधादि यज्ञों में वध किये जाने वाले छाग आदि को स्वर्गप्राप्ति का लाभ होता है। अतः यज्ञ की हिंसा वस्तुतः हिंसा नहीं है। – तो संसारमोचकमतवादी, जो मानता है कि जीवों को मार देने से उन की संसार के सारे दुःखो से मुक्ति हो जाती है, उस की ओर से की जानेवाली हिंसा भी दुःखमोक्ष के लाभ के कारण वस्तुतः हिंसा नहीं होगी। तथा, क्षेत्रदेवता आदि को प्रसन्न करने के लिये अनार्यादि लोग ब्राह्मण या गौआदि को मारते हैं तो वहाँ भी वस्तुतः हिंसा नहीं कही जा सकेगी। कारण, उन के मत से वध किये जानेवाले गो-ब्राह्मण आदि को उस देवता का सांनिध्य और कृपा का लाभ होता है। यदि कहा जाय – 'संसारमोचक और अनार्य आदि के शास्त्र प्रमाणभूत नहीं है अतः उन शास्त्रों से विहित हिंसा को अहिंसा नहीं कह सकते।' – तो अरे महानुभव ! आप के वेद का भी प्रामाण्य कहाँ सिद्ध है ? वह भी अप्रमाण क्यों न माना जाय ? 'गुणवान पुरुषों ने वेद की रचना किया है इस लिये उस को अप्रमाण नहीं मानेंगे' - ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि हम उसे गुणवान पुरुषों की रचना नहीं मानते । अपौरूषेय होने से वेद को प्रमाण बताना ठीक नहीं है क्योंकि कोई भी शास्त्र अपौरुषेय हो नहीं सकता। निष्कर्ष, हमने पहले जो अभिप्राय कहा है कि अप्रमत्तभाव में अवस्थित मुनि से होने वाली हिंसा अहिंसा है – इस अभिप्राय (अपेक्षा) के स्वीकार के विना हिंसा से धर्मप्राप्ति का विधान उचित नहीं हो सकता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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