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________________ प्रस्तावना करता है वही सच्चा जैन सिद्धांतो का व्याख्याता है, उस से विपरीत प्ररूपणा करनेवाला सिद्धान्त का विराधक है। यहाँ भी अनेकान्तवाद की प्रधानता को नजर-अंदाज नहीं कर सकते। जैनशासन में कारण-तत्त्वों का प्रतिपादन भी अनेकान्त से मुक्त नहीं है। ५३ वीं गाथा में यही तथ्य कहा गया है कि काल, स्वभाव, नियति, कर्म या पुरुषार्थ इन पांचो के समवाय (गौण-मुख्यभाव से समुदायापन्न) को कारण मानने में सम्यक्त्व दिखाया है, पृथक् एक एक को कारण मानने वाले एकान्तवाद में मिथ्यात्व दर्शाया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि अकेले प्रारब्ध या अकेले पुरुषार्थ से कहीं भी फलनिष्पत्ति नहीं होती। ____ जैनशास्त्रों में सम्यक्त्व के छः स्थान दिखाये गये हैं। 'आत्मा है- 'नित्य है- कर्ता है- 'भोक्ता है मोक्ष है- 'मोक्षोपाय है। सन्मतिकार गाथा ५५ में कहते हैं कि ये छः स्थान भी मिथ्यात्व के हैं। कब ? एकान्तवाद से जब ऐसा मान लिया जाय तब । पूज्य श्री बार बार इस ढंग से एकान्तवाद की वासना तोड कर अन्तःकरण को अनेकान्तवाद की सुवास से सुरभित करने के लिये भारपूर्वक निर्देश करते हैं। जैनागम के एक एक सूत्र अनेक नयों से अनुविद्ध होता है। किन्तु कुछ लोग उन्हीं सूत्रों को सिर्फ आभासिक एक एक नय से ज्ञात कर लेते हैं और अपने को 'सूत्रधार' (शास्त्रज्ञाता) मान कर समझ कर बैठ जाते हैं (इतना ही नहीं-मैं ही या मेरे गुरु ही शास्त्रज्ञाता है, बाकी सब अकोविद हैं ऐसा जोर-शोर से प्रचार करने में ही मस्त बने रहते हैं) वास्तव में तो उन महाशयों में अनेक नयों के गहन-परामर्श से फलित होनेवाले शास्त्रतात्पर्य का बोध-सामर्थ्य होता नहीं। ऐसे 'सूत्रधरों' को ६१ वी गाथा में पूज्यश्री अज्ञानी ही निर्दिष्ट करते हैं। इतना ही नहीं वैसे सूत्रधर अनेकान्तवाद का अनादर करते हुए सम्यग्दर्शन गुण को भी गवाँ देते है (गाथा ६२), क्योंकि 'हम शासनभक्त हैं' ऐसी आभिमानिक शासनभक्ति मात्र से कोई सिद्धान्तज्ञाता (यानी वास्तव में शास्त्रज्ञाता) नहीं हो जाता (गाथा ६३)। जो लोग सिर्फ सत्र का पाठ करते हैं. अर्थ के अध्ययन की उपेक्षा करते हैं . उन के प्रति गाथा ६४ में कहा गया है कि अर्थानुसार सूत्र की प्रवृत्ति होती है। सूत्र के पीछे अर्थ को नहीं चलना है। अर्थबोध भी सरल नहीं होता, अति गहन नयवाद में अर्थ का आविष्कार दुष्कर है। इसीलिये अनेकान्तवाद सिद्धान्त का अध्ययन अत्यंत आवश्यक बन जाता है। ___ अनेक भयस्थानों के प्रति रेड सिग्नल दिखाते हुए सन्मतिकार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य के प्रति निर्देश करते हैं – अनेकान्तवाद को आत्मसात् कर के शास्त्रोक्त पदार्थों के विमर्श-परामर्श करने में प्रत्येक साधुजन का आदर होना चाहिए। ‘कदाचित् कोई परामर्श-विमर्श किये बिना ही उपरि सतह से कुछ सूत्रों का पाठ कर के अपने को बहुश्रुत मान बैठे, एवं अपने अंगूठा छाप शिष्य-अनुयायीवर्ग में सम्मत-मान्य हो जाय, एवं अनेक शिष्यों के परिवार से समृद्ध बन जाय, तो ऐसा साधु या आचार्य वास्तव में शास्त्रज्ञ अथवा शासनभक्त नहीं है किन्तु शास्त्र-सिद्धान्त का बड़ा दुश्मन है – क्योंकि वह शास्त्र-शास्त्र कर के शास्त्रों के ही अनेकान्तवादादि अनेकानेक सिद्धान्तों की घोर अवज्ञा करता हुआ जैनशासन की लोकदृष्टि में अत्यन्त लघुता कर बैठता है।' (गाथा-६६) छोटी-सी बात में अखबारों के माध्यम से जो लोग आज-कल अपने मनमाने सिद्धान्त के प्रचार के नाम पर सत्य-तथ्य जिनसिद्धान्तों का जोर-शोर से खंडन करने में लगे हुए हैं उन के लिये (एवं सभी के लिये) श्री सन्मतिकार का यह हितवचन रेड सिग्नल है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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