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________________ खण्ड-४, गाथा-३४/३५, केवलज्ञानोत्पाद - विनाशौ ४९९ अतोऽनन्तमिति न पुनरुत्पद्यते, विनाशपूर्वकत्वादुत्पादस्य । न हि घटस्याऽविनाशे कपालानामुत्पादो दृष्ट इत्यनुत्पादव्ययात्मकं केवलमित्यभ्युपगमवतो निराकर्त्तुमाह (मूलम् ) केवलणाणं साई अपज्जवसियं ति दाइयं सुत्ते । तेत्तियमित्तोत्तूणा केइ विसेसं ण इच्छंति । । ३४ ।। ( व्याख्या) केवलज्ञानं साद्यपर्यवसितमिति दर्शितं सूत्रे इत्येतावन्मात्रेण गर्विताः केचन विशेषं पर्यायं 5 पर्यवसितत्वस्वभावं विद्यमानमपि नेच्छंति ते, न च सम्यग्वादिनः । । ३४ ।। यतः (मूलम् ) जे संघयणाइया भवत्थकेवलि विसेसपज्जाया । — ते सिज्झमाणसमये ण होंति विगयं तओ होइ । । ३५ ।। (व्याख्या) ये वज्रऋषभनाराच संहननादयो भवस्थस्य केवलिनः आत्म- पुद्गलप्रदेशयोरन्योन्यानुवेधाद् व्यवस्थितेः विशेषपर्यायाः ते सिध्यत्समयेऽपगच्छन्ति, तदपगमे तदव्यतिरिक्तस्य केवलज्ञानस्याप्यात्मद्रव्यद्वारेण 10 कुछ लोग केवलज्ञान के सादि - अपर्यवसित्व का आपाततः ऐसा भाव निकालते हैं कि “ सूत्र में केवलज्ञान को सादि और अपर्यवसित कहा है। वह अनुमान से इस तरह संगत हो सकता है केवलज्ञान सादि है क्योंकि वह घाती चार कर्मों के क्षय से प्रकट होता है। एक बार आवरणक्षय से उत्पन्न हो गया तो पुनः उस को आवरण नहीं लगता है इसी लिये वह अनन्त है, यानी फिर फिर उत्पन्न नहीं होता । पूर्ववस्तु विनाश के विना नूतन वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती यह नियम है, 15 उदा० दिखता है कि घट का विनाश हुए विना खप्पर की उत्पत्ति नहीं होती। पुनः उत्पाद और नाश से अलिप्त होता है, यानी अपर्यवसित होता है । " सूत्रोत्तीर्ण मान्यता का निरसन करते हुए सूत्रकार कहते हैं। इस प्रकार केवल ज्ञान कुछ लोगों की ऐसी गाथार्थ :- सूत्र में दर्शाया है केवलज्ञान सादि - अपर्यवसित होता है । इतने मात्र से गर्वान्वित कुछ लोग केवलज्ञान के पर्यायस्वरूप) विशेष को नहीं मानते हैं । । ३४ ।। व्याख्यार्थ :- सूत्र में जो केवलज्ञान को सादि - अपर्यवसित दिखाया है उस का भावार्थ 'हम पूरा समझ गये' ऐसा गर्व धारण करनेवाले कुछ विद्वान केवलज्ञान के विशेष का यानी पर्यवसितत्वस्वरूप पर्याय का इनकार कर बैठते हैं वे सम्यग्वादी नहीं है । । ३४ ।। कारण यह है Jain Educationa International — - For Personal and Private Use Only — [ केवलज्ञान का कथंचिद् विनाश सयुक्तिक है ] गाथार्थ :- भवस्थकेवली के जो संघयणादि विशिष्ट पर्याय हैं वे सिद्धिगमनकाल में नहीं रहते, 25 अतः विगत (= विनाश) ( केवलज्ञान का ) है । । ३५ ।। व्याख्यार्थ :- जब तक केवलज्ञानी का मोक्ष नहीं हुआ तब तक केवली भी संसार में रहता है। तब अघाती नामादि कर्म के उदय से वज्रऋषभनाराच संघयणबल आदि भी असाधारण पर्यायस्वरूप से सहवर्त्ती होते हैं । कर्मों के पुद्गलरूप प्रदेश और आत्मप्रदेश ये दोनों संसारपर्यन्त अवस्था में अन्योन्य बँधे हुए रहते हैं एकीभाव से रहते हैं। केवलज्ञान भी तब तक कर्मोदयजनित संघयणबल-वीर्य 30 से लिपटा हुआ रहता है। जब अघाती कर्मों का विनाश होता है तब कर्मप्रतिबद्ध संसारी आत्मा - 20 www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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