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________________ ४९७ खण्ड-४, गाथा-३०/३१/३२, केवलभेदाभेदविमर्श ततो युगपज्ज्ञान-दर्शनोपयोगद्वयात्मकैकोपयोगरूपः केवलावबोधोऽभ्युपगन्तव्य:- इति सूरेरभिप्रायः ।।३०।। 'द्वयात्मक एक एव केवलावबोध' इति दर्शयन्नाह(मूलम्) साइ अपज्जवसियं ति दो वि ते ससमयओ हवइ एवं । परतित्थियवत्तव्वं च एगसमयंतरुप्पाओ।।३१।। (व्याख्या) द्वे अपि ते ज्ञान-दर्शने यदि युगपद् न नाना भवतस्तदा स्वसमयः = स्वसिद्धान्त: 5 ‘साद्यपर्यवसिते' इति घटते। यस्तु ‘एकसमयान्तरोत्पादः' तयोः ‘यदा जानाति तदा न पश्यति' इत्येवमभिधीयते स ‘परतीर्थिकशास्त्रं' नार्हद्वचनम् नयाभिप्रायेण प्रवृत्तत्वाद् इति सूरेरभिप्रायः ।।३१।। एवंभूतं वस्तुतत्त्वं श्रद्दधानः सम्यग्ज्ञानवानेव पुरुष सम्यग्दृष्टि:-इत्याह(मूलम्) एवं जिणपण्णत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे । पुरिसस्साभिणिबोहे सणसद्दो हवइ जुत्तो।।३२।। निष्कर्ष, सूत्रकार आचार्य का यही अभिप्राय है कि केवलावबोध युगपद् ज्ञानदर्शनोभयोपयोगानुस्यूत एक उपयोगरूप ही है। (छद्मस्थावस्था में भले ही दो उपयोग भिन्न हो, केवली अवस्था में दोनों एक ही है - यह सार है।) [ केवल उपयोग युगपद् एक होने का समर्थन ] ___ अवतरणिका :- 'उभयात्मक केवलावबोध एक ही है' इस तथ्य की दृढता के लिये ३१ वी गाथा 15 में कहते हैं - गाथार्थ :- एवं (यानी उक्त अभेद-रीति से ही) दो ही वे सादि और अनन्त घटित होते हैं - यह स्वसमय (स्वसिद्धान्त) है, समयान्तर से (क्रमिक) दोनों की उत्पत्ति (वाला मत) पर (अजैन) तीर्थकों का प्रतिपादन है।।३१।। ___ व्याख्यार्थ :- दोनों ही ज्ञान-दर्शन युगपद् होते हुए यदि पृथक् नहीं है तभी अपना जैन सिद्धान्त 20 दोनों के 'सादि-अनन्त' होने का घटता है। उस के विपरीत यदि कहा जाय कि – 'जब जानता है तब देखता नहीं - इस प्रकार ज्ञानदर्शन का उद्भव समयान्तर से होता है' - यह तो जैनेतरदर्शन का मत हुआ, न कि भगवान का वचन। कारण, एक अंश ग्राहक नय का (दुर्नय का) अभिप्राय ही उस मत का प्रवर्तक है। सिद्धसेन दिवाकर सूरि का यही तात्पर्य है।।३१।। [सम्यग्दर्शन भी आभिनिबोधरूप है ] अवतरणिका :- ३२ वीं कारिका में सूत्रकार कहते हैं कि उपरोक्तप्रकार से (उभयोपयोगात्मक एकोपयोगवाला केवलीरूप) वस्तुपरमार्थ को सद्दहनेवाला (श्रद्धा करने वाला) सम्यग्ज्ञानी पुरुष ही सही कहा जाय तो सम्यग्दृष्टि हो सकता है - ___गाथार्थ :- उपरोक्त प्रकार से तत्त्वतः जिनोक्त तत्त्वों की श्रद्धा करनेवाले पुरुष के ‘आभिनिबोध' के लिये 'दर्शन' शब्दप्रयोग युक्त है।।३२ ।। 30 ___ व्याख्यार्थ :- पूर्वोक्त रीति से जिनप्ररूपित पदार्थों की श्रद्धा करनेवाले पुरुष का जो आभिनिबोधिक 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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