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________________ ४८८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ इतश्च कथञ्चिद् भेदः(मूलम्-) दंसणपुव्वं णाणं णाणणिमित्तं तु दंसणं णत्थि।। तेण सुविणिच्छियामो दसण-णाणाण अण्णत्तं ।।२२।। (व्याख्या) दर्शनपूर्वं ज्ञानम्, ज्ञाननिमित्तं तु दर्शनं नास्तीत्युक्तम्, यतः सामान्यमुपलभ्य पश्चाद् 5 विशेषमुपलभते न विपर्ययेणेत्येवं छद्मस्थावस्थायां हेतु-हेतुमद्भावक्रमः । तेनाप्यवगच्छामः कथञ्चित्तयोर्भेदः इति । अयं च क्षयोपशमनिबन्धनः क्रमः केवलिनि च तदभावादक्रम इत्युक्तम् (४६८-५)।।२२।। यदुक्तम् - 'अवग्रहमानं मतिज्ञानं दर्शनम्' इत्यादि तदयुक्तम् अतिव्याप्तेः, इत्याह(मूलम्) जइ ओग्गहमेत्तं दंसणं ति मण्णसि विसेसियं णाणं । __ मइणाणमेव दंसणमेवं सइ होइ निप्फण्णं ।।२३।। एवं सेसिंदियदंसणम्मि नियमेण होइ ण य जुत्तं । अह तत्थ णाणमेत्तं घेप्पइ चक्खुम्मि वि तहेव ।।२४।। ___(व्याख्या) यदि मत्यवबोधे अवग्रहमानं दर्शनं विशेषितं ज्ञानम् इति मन्यसे मतिज्ञानमेव दर्शनमित्येवं [छद्मस्थ को दर्शनमूलक ही ज्ञान होता है, केवल में नहीं ] अवतरिणका :- ज्ञान-दर्शन के कथंचिद् भेद में एक और युक्ति है - 15 गाथार्थ :- दर्शनपूर्वक ज्ञान तो होता है किन्तु ज्ञानमूलक दर्शन नहीं होता। इस आधार पर निश्चय करते हैं कि दर्शन और ज्ञान में भेद है।।२२।। व्याख्यार्थ :- दर्शनमूलक, दर्शन के बाद ज्ञान होता है; किन्तु ज्ञानमूलक, ज्ञान के बाद दर्शन नहीं होता, यह कहा जा चुका है। कारण सामान्य की उपलब्धि के पश्चात् विशेष का उपलम्भ होता है, किन्तु उस से उल्टा- विशेषोपलब्धि के बाद सामान्य का उपलम्भ नहीं होता। इस प्रकार छद्मस्थावस्था 20 में दर्शन-ज्ञान के बीच कारण-कार्यभावगर्भित क्रम है। इस से सुनिश्चत होता है कि दर्शन और ज्ञान में कथंचिद् भेद है। यहाँ स्पष्ट है कि जो क्रम है वह छद्मस्थावस्था में क्षयोपशममूलक है। केवली को क्षयोपशम न होने से ज्ञान-दर्शन में क्रमाभाव है यह पहले कहा जा चुका है (४६८-१४) ।।२२।। अवतरणिका :- २१ वी गाथा में एकदेशी के मत से कहा गया था कि 'मतिज्ञान का अवग्रहरूप एक भेद दर्शन है' वह अतिव्याप्ति दोष के कारण अयक्त है - 25 गाथार्थ :- यदि (ऐसा आप मानते हैं) अवग्रहमात्र दर्शन है और विशेषित ज्ञान है, तो यही प्राप्त हुआ की मतिज्ञान ही दर्शन है।।२३।। इस तरह तो अन्य इन्द्रियों के (अवग्रह) भी दर्शन में नियम हुआ, वह युक्त नहीं है। वहाँ (शेष इन्द्रियों का) ज्ञान ही समझना है तो चक्षु में भी वैसा हो ।।२४ ।। व्याख्यार्थ :- मतिरूप बोध में यदि अवग्रहमात्र दर्शन और विशेषित (यानी ईहादि) ज्ञानरूप A. श्री यशोविजयोपाध्यायेन 'दंसणणाणा ण'.... इति णकारस्य विभाजनं कृत्वा 'दर्शन-ज्ञाने नाऽन्यत्वं = न क्रमापादितभेदं केवलिनि 'भजेते'इति शेषः' - इत्थं ज्ञानबिन्दुग्रन्थे व्याख्यातम् । Jain Educationa International www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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