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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ३९३ नन्वेवमप्यनुमाने प्रसङ्गः तस्य यथोक्तफलजनकत्वात्। न, अविनाभावसम्बन्धस्मृतिपूर्वकस्य परामर्शज्ञानस्य विशिष्टफलजनकत्वेनाऽनुमानत्वात्। न चाधिकृतज्ञानमविनाभावसम्बन्धस्मृतिपूर्वकम् गोसदृशस्य गवयशब्दवाच्यत्वेनाऽन्यस्याऽप्रसिद्धत्वात्। “गोसदृशस्य गवयशब्दः संज्ञा' इत्यागमात् प्रतीतिः" - इति चेत् ? न, तस्य सन्निधीयमानगोसदृशपिण्डविषयत्वेनाऽप्युपपत्तेः। निश्चितश्चान्वयः साध्यप्रतिपत्त्यङ्गम्। न च तदोपलभ्यमानाद् गोसदृशपिण्डाद् व्यतिरिक्तगौसदृशसद्भावनिश्चायकं प्रमाणमस्ति । न चात्र व्यतिरेक्यपि 5 हेतुः समस्ति सपक्षाऽसत्त्वप्रतिपादकप्रमाणाभावात्। अतो नाऽविनाभावसम्बन्धानुस्मृतिः। व्याप्तिरहितेऽपि चागमे ‘गोसदृशो गवयः' इति सकृदुच्चारिते उत्तरकालं गोसदृशपदार्थदर्शनात् ‘अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तिर्भवतीति नानुमानमेतत्। संज्ञा-संज्ञिसम्बन्धज्ञानं त्वागमिकं न भवत्येव शब्दस्य तज्जनकस्य तदाऽभावात्। शब्दजनितं च शाब्दं प्रमाणमिति व्यवस्थितम् । ___'प्राक् शब्दप्रतीतत्वात् शाब्दम्' इति चेत् ? नन्वनुमानस्याप्येवमभावप्रसक्तिः अग्निसामान्यस्य प्राक् 10 [ अनुमान में उपमान का अन्तर्भाव नहीं ] शंका :- शाब्द में नहीं तो भी अनुमान में अतिप्रसंग है, क्योंकि वह भी गोसादृश्यज्ञानफल का जनक है। उत्तर :- नहीं, अनुमान तो वही है जो अविनाभावसम्बन्धस्मृतिपूर्वक परामर्शज्ञान द्वारा विशिष्ट फलजनक होता है। अधिकृत उपमानज्ञान अविनाभावसम्बन्धस्मृति पूर्वक नहीं होता। कारण यह है कि व्याप्तिग्रहण के लिये उदा० चाहिये वह तो है नहीं, अर्थात् गवयशब्दवाच्य अन्य कोई गोसदृश प्रसिद्ध 15 ही नहीं है। यदि कहें कि - 'आप्तवाक्य से यह पता चल सकता है कि 'गवय शब्द गोसदृश की संज्ञा है - तो ऐसा शक्य नहीं. क्योंकि ऐसा संज्ञाज्ञान तो परोवर्ती संनिहित अन्य किसी गोसदश पिण्ड (गर्दभादि) के विषय में भी हो सकता है, जरूरी नहीं है कि वह संज्ञाज्ञान ‘गवय' के विषय में ही हो । यह ज्ञातव्य है कि निश्चित व्याप्ति ही साध्योपलब्धि का उपाय है, संज्ञाज्ञानकाल अनन्तर तत्काल उपलब्धिविषय जो गोसदृशपिण्ड है (गर्दभादि) उस के अतिरिक्त भी कोई गोसदृश पशु है या नहीं उस 20 का निश्चायक प्रमाण तो है नहीं, अतः अन्वय व्याप्ति ग्रहण सम्भव न होने से अनुमान असम्भव है। __ व्यतिरेकी हेतु भी सम्भव नहीं है, क्योंकि जब तक सपक्ष में उस हेतु के असत्त्व का साधक कोई ठोस प्रमाण न मिले तब तक 'व्यतिरेकी' हेतु को अवकाश कैसे होगा ? फलित यही है कि अविनाभावसम्बन्ध का स्मरण वहाँ शक्य नहीं है अतः अनुमान असम्भव है। यह तो सर्वविदित है कि व्याप्ति के विना भी, 'गवय गोतुल्य होता है' ऐसे एक बार आप्तवाक्य का श्रवण होने के बाद 25 गोसदृशपिण्ड का दर्शन होवे तो ‘यह वो गवयशब्दवाच्य है' ऐसा भान हो ही जाता है; वह कोई अनुमान नहीं है। यह भी ज्ञातव्य है कि संज्ञा-संज्ञीसम्बन्धज्ञानरूप उपमान ज्ञान आप्तवाक्यश्रवणमात्र से नहीं होता (उस के बाद तादृशपिण्ड के दर्शन से होता है।) क्योंकि उस वक्त तथाप्रकार का ज्ञानजनक शब्द उपलब्ध नहीं है, जब कि शाब्दप्रमाण भी वही है जो शब्द से जनित हो (यहाँ शब्दमात्रजनित न होने से यह उपमानज्ञान शाब्दबोध नहीं है।) [ उपमान का अनुमान में अन्तर्भाव नहीं - नैयायिक ] 'उपमान शब्दजनित न हो फिर भी उपमान के पूर्व उपमान का विषय शब्द से प्रतीत ही है' ___ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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