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________________ 10 खण्ड-४, गाथा-१ ३५३ रूपादीनां तत्कार्यत्वात् कार्य-कारणयोश्च सहोत्पादे निर्हेतुकत्वप्रसक्तेः। न चान्त्यतन्तुक्रिया अन्तराले प्रतिबन्धसंभवात् त्रिचतुरक्षणव्यवधानान्नावश्यं विवक्षितकार्योत्पादिके ति वक्तव्यम्, यतोऽनुत्पन्नावयवक्रिये तन्ताविति विशेषणोपादानं कृतमिति नाधारविनाशात् क्रियाविनाशः। क्रिया चाऽविनष्टा स्वकार्य विभागमवश्यमुत्पादयति, स च स्वप्रतिबन्धकाभावे स्वाश्रयसंयोगं नियमतो निर्वर्त्तयति, अन्यथा क्रियायाः स्थैर्यप्रसक्तिर्नित्याधारयोश्च नित्यत्वप्रसक्तिर्भवेत् । स च क्रियाप्रभवः संयोगो नियतो द्रव्याविर्भावकः, सति 5 तस्मिन् द्रव्यप्रभवोपलम्भात्। ततोऽन्त्यतन्तुक्रियातोऽन्त्यतन्तोर्विभागविशिष्टस्योपलम्भात् कार्यानुमाने न कार्यप्रत्यक्षतादोषः। येषां तु परामर्शज्ञानं न संभवति तेषां कार्यप्रत्यक्षता दूरापास्तैव। ___ यत् पुनः ‘समग्रात् कारणात् स्वात्मभूतस्य योग्यताख्यधर्मस्यानुमानं न कार्यस्य, तेन स्वभावहेतुप्रभवमेतदनुमानम्' (३४९-९) इति - तदसङ्गतम्, अभेदे गम्य-गमकभावस्याऽसम्भवात्। अथ यत्रापि [कार्योत्पत्तिकालीनप्रत्यक्षापत्ति का निरसन ] यदि कहें कि कार्योत्पत्ति के पहले भले ही उस का प्रत्यक्ष न हो किन्तु उत्पत्तिकाल में प्रत्यक्ष क्यों नहीं होगा ? जवाब यह है कि उत्पत्तिक्षण में द्रव्य निर्गुण-निष्क्रिय होने से उस में रूपादि न होने से उत्पत्तिकाल में उस का प्रत्यक्ष अशक्य है। रूपादि और उन के अधिकरण द्रव्यों का समकालीन उत्पाद भी शक्य नहीं है क्योंकि द्रव्य समवायिकारण है और रुपादि गुण उस का कार्य है, कारणकार्य एक साथ नहीं किन्त पूर्वापरभाववाले ही होते हैं। यदि उन की समकालीन उत्पत्ति मानेंगे तो 15 कौन कारण, कौन कार्य यह विभाग न होने से कार्य रूपादि कारणनिरपेक्ष उत्पत्तिवाले बने रहेंगे। यदि कहा जाय – ‘अन्त्य तन्तु में क्रियोत्पत्ति होने के बाद भी तीन या चार क्षणों के व्यवधान से विवक्षित वस्त्र की उत्पत्ति अवश्य होगी ऐसा नहीं कह सकते - क्योंकि बीच में तीन-चार क्षणों में कुछ न कुछ विघ्न - यानी पूर्व व्यूत वस्त्र के अवयवों में विनाशक क्रिया की उत्पत्ति आदि विघ्न का पूरा सम्भव है।' – तो यह ठीक नहीं, क्योंकि हमने अन्तिम तन्तुक्रिया का यह विशेषण 20 भी कहा है कि शेष पूर्व व्यूत तन्तु अवयवों में कोई क्रिया उत्पन्न नहीं हुई तभी की यह बात है। फलतः, आधार (पूर्व व्यूत वस्त्र) का नाशरूप विघ्न जब असंभव है तब विभागजनक क्रिया का नाश भी शक्य नहीं है। अविनष्ट क्रिया अवश्य अपने विभागरूप कार्य को उत्पन्न किये विना रहेगी नहीं। वह विभाग कोई प्रतिबन्धक न होने से अपने कार्य अन्तिमतन्तुसंयोग को अवश्य पैदा करेगा, (जो कि विभागजनक क्रिया का नाशक भी है)। यदि वह संयोग नहीं पैदा होगा तो क्रिया 25 स्थिर रह जायेगी। उस क्रिया का आधार नित्य परमाणु होने पर नित्य परमाणुसमवेत क्रिया में भी नित्यत्व की आपत्ति आयेगी। अतः मानना पडेगा कि क्रिया से नियमतः स्वाश्रयसंयोग उत्पन्न होगा जो कि द्रव्यजनक असमवायि कारण होने से द्रव्य का उत्पादक बनेगा, क्योंकि उस की उत्पत्ति के बाद त्वरित द्रव्य की उपलब्धि (प्रत्यक्ष) होती है। इस प्रकार, अन्त्य तन्तु क्रिया से पूर्वदेशविभाग विशिष्ट अन्त्यतन्तु का उपलम्भ मात्र ही शक्य है, अतः उस को देख कर भावि कार्य का अनुमान 30 हो सकता है किन्तु कार्योत्पत्ति के अभाव में उस समय कार्य के प्रत्यक्ष की आपत्ति का दोष दूरापास्त है। जिन को परामर्शज्ञान ही सम्भव नहीं है उन के मत में कार्यप्रत्यक्षता को अवकाश ही नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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