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________________ २५४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ संनिकर्षस्य प्रमाणत्वप्रसक्तेः । 'अज्ञानत्वाद् न' इति चेत् ? न, विशेषणज्ञानं विशेष्यज्ञानोत्पत्तौ ज्ञानत्वाद् विशेष्यविषयत्वेन प्रमाणं स्यात्, न च तदिष्यते विशेषण-विशेष्यालम्बनभिन्नज्ञानवादिभिः, अतो यथा विशेषणज्ञानस्य विशेष्यज्ञानोत्पत्ती प्रामाण्यं तथा संनिकर्षस्यापि विशेषणज्ञानोत्पत्तौ तदभ्युपगन्तव्यम् । ___ तथाहि- संनिकर्षः प्रमाणम् विशिष्टज्ञानोत्पत्तौ कारणत्वात् विशेषणज्ञानरत् । ज्ञानत्वात् प्रमाण5 त्वाभ्युपगमेऽकारकाणां निर्णयादीनां प्रमाणत्वं स्यात् । न च नैयायिकैरनर्थान्तरभूतं बौद्धैरिव फलमभ्युपगम्यते तदभ्युपगमे वा तत्पक्षनिरासाद् अयमपि निरस्त एव । अतो ज्ञानप्रमाणवादिनः सुषुप्तावस्थोत्तरकालं घटत्वादिज्ञानाभावप्रसक्तेर्घटादिज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्ग इत्यशेषस्य जगत आन्ध्यापत्तिः। न च सुषुप्तावस्थायां ज्ञानसद्भावाद् नायं दोषः, असंवेद्यमानस्य तदवस्थायां तस्य सद्भावाऽसिद्धेः। न च जाग्रत्प्रत्ययेन तत्सद्भावोऽवसीयते, तस्य तत्प्रतिबन्धासिद्धेः। 'तत्कार्यत्वात् तत्प्रतिबन्ध' इति चेत् ? न, वैशेषिकैः 10 अन्यवादी कहे तो वह भी मानना पडेगा। किन्तु वह आप को मान्य नहीं होगा क्योंकि आप तो विशेषणज्ञान और विशेष्यज्ञान भिन्नविषयक होने से अलग ही मानते हैं, एक को ज्ञानात्मक होने पर भी प्रमाण और दूसरे को फल मानते हैं। अत एव, जैसे विशेष्यज्ञानोत्पत्ति में विशेषणज्ञान को प्रमाण मानते हो वैसे ही विशेषणज्ञानोत्पत्ति में संनिकर्ष (भले अज्ञानरूप हो) को प्रमाण मानना चाहिये। [प्रमाण की ज्ञानरूपता में दोष परम्परा ] 15 ध्यान से सुनो ! - संनिकर्ष प्रमाण है क्योंकि विशिष्टज्ञानोत्पत्ति का कारण है, जैसे विशेषण ज्ञान। संनिकर्ष ज्ञानरूप नहीं है तो क्या हो गया ? ज्ञानमात्ररूप होने से कोई भी ज्ञान प्रमाण नहीं बन जाता। यदि ऐसा होता तो अकारक निर्णय-संशयादि को भी 'प्रमाण' मान लेना पडता। बौद्ध दार्शनिक भले प्रमाण और फल का अभेद स्वीकारे, नैयायिकों में तो ऐसा नहीं है। यदि नैयायिक हो कर बौद्ध की तरह फल-प्रमाण का अभेद मान लेगा (जिस से कि उन्हें संनिकर्ष को प्रमाण मानने 20 की जरूर न रहे, संनिकर्ष जन्य ज्ञान ही फल एवं प्रमाण दोनों बन जायेंगे) तो बौद्धमत के निरसन में नैयायिकोंने जो तर्कजाल प्रस्तुत किया है उस से ही उस का अपना मत भी निरस्त हो जायेगा। अब इस स्थिति में यदि नैयायिक ज्ञान को ही प्रमाण मानने का आग्रह रखेंगे तो सषप्ति के बाद जागरणदशा में घटत्वादिज्ञान का अस्तित्व ही नहीं हो सकता, क्योंकि सुषुप्ति काल में नैयायिक मत में घटत्वज्ञानरूप प्रमाण का कोई साधन ही नहीं है। फलतः घटत्वज्ञान लुप्त होने से घटज्ञान 25 का भी (विशेषणज्ञान के न होने से) अभाव प्रसक्त होने से निद्रावस्था के बाद सारा जीवजगत् अन्धों की तरह ज्ञानशून्य बन जायेगा। [सुषुप्तिदशा में ज्ञानाभाव - नैयायिकमत ] यदि कहें कि 'सुषुप्ति में भी (कारणरूप से) ज्ञान का अस्तित्व मान लेंगे तो अन्धवत् ज्ञानशून्यता का दोष प्रसक्त नहीं होगा।' तो यहाँ किसीको अनुभव नहीं है कि सुषुप्ति में भी ज्ञान रहता है। 30 मतलब, सुषुप्ति में (पुरितत् नाडी में मनः प्रवेश हो जाने से) ज्ञान का सद्भाव असिद्ध है। यदि अनुमान करें कि – जागरणदशा में ज्ञान का उदय होता है अतः सुषुप्ति में कुछ ज्ञान होना चाहिये - तो विना व्याप्ति के ऐसा अनुमान अशक्य है। यदि कहें कि - सभी ज्ञान ज्ञान के कार्य हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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