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________________ २३८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तदवभासिनो ज्ञानस्य कथमसदर्थविषयत्वेन कल्पनात्वं भवेत् ? न चार्थाभावेऽपि विकल्पानामुत्पत्तेः नार्थजत्वम् अविकल्पस्याप्यर्थाभावेऽपि भावादनर्थजत्वप्रसक्तेः। अथ तदध्यक्ष प्रमाणमेव नाऽभ्युपगम्यते तर्हि विकल्पानामप्ययं न्यायः समानः, तेऽप्यसदर्था अध्यक्षप्रमाणतया नाभ्युपगम्यन्ते असदर्थत्वं च विकल्पाऽविकल्पयोर्बाधकप्रमाणावसेयम् तच्च यत्र न प्रवर्तते तस्य कथमसदर्थता ? 5 Bएतेन द्वितीयविकल्पः प्रतिविहितः। C अथ विशेषणविशिष्टार्थग्राहित्वं कल्पनात्वम् तदा । किं तथाभूतार्थाभावात् तद्ग्राहिणो ज्ञानस्य विकल्पकत्वम् आहोस्विद् "विशेषणविशिष्टार्थग्राहित्वेनैव ? इति वक्तव्यम्। आद्यविकल्पे सिद्धसाध्यता असदर्थग्राहिणः प्रत्यक्षप्रमाणत्वेनानभ्युपगमात्। न च द्वितीयपक्षादस्य पक्षान्तरत्वम् द्वितीयपक्षस्य च प्रतिविधानं विहितमेव। अथ द्वितीयपक्षोऽभ्युपगम्यते, सोऽपि न युक्तः, नीलादिज्ञानस्याप्यप्रत्यक्षत्वप्रसक्तेः । 10 अथास्य न विशेषणविशिष्टार्थग्राहिता, ननु विशेषणविशिष्टार्थग्राहकत्वेनाध्यक्षत्वस्य को विरोधो येन - तो ऐसे शब्दार्थ के प्रकाशक ज्ञान को 'असत्यअर्थग्राहक कल्पनास्वरूप' ठहरा कर विकल्प को अप्रत्यक्ष कैसे मान सकते हैं ? बौद्ध :- अर्थ के विरह में भी विकल्प उत्पन्न नहीं होते क्या ? फिर उसे अर्थजन्य कैसे मानेंगे ? नैयायिक :- अहो ! निर्विकल्प भी अर्थविरह में नहीं होते क्या ? उन्हें भी अर्थजन्य कैसे मानेंगे ? 15 (दृष्टव्य पृ.२४१ पंक्ति ४) ___ बौद्ध यदि अर्थविरह में जात निर्विकल्प को प्रमाण नहीं स्वीकार करते तो विकल्पों के बारे में भी समान न्याय से हम अर्थविरहकालीन विकल्प के प्रामाण्य को नहीं स्वीकारेंगे। चाहे विकल्प हो या निर्विकल्प, असदर्थता तो बाधकप्रमाण के आधार पर ही घोषित हो सकती है। प्रमाणभूत विकल्प की ओर बाधक प्रमाण की प्रवृत्ति शक्य नहीं है तब उसे असदर्थक कैसे कहा जाय ? 20 B विकल्प की अविद्यमान अर्थग्राहकता का दूसरा पक्ष भी यहाँ अब निरस्त हो जाता है क्योंकि प्रथम पक्ष में ही उस की चर्चा समाविष्ट हो गयी है। विकल्प भी विद्यमानार्थग्राहक होता है। [विशेषणविशिष्टार्थग्राहकता के संदर्भ में दो प्रश्न ] ____C विकल्प तीसरा - विकल्प को यदि विशेषणविशिष्टअर्थग्राहकरूप माना जाय तो उस पर दो प्रश्न हैं विशेषणविशिष्टअर्थ का अस्तित्व न होने से आप उस के ग्राहकज्ञान को 'विकल्प' रूप यानी 25 अप्रमाण मानते हैं या bतथाविध अर्थ का वह ग्राहक है इसलिये ? प्रथम पक्ष में सिद्धसाध्यता दोष लगेगा क्योंकि हम भी असत् अर्थ के ग्राहक ज्ञान को 'प्रत्यक्षप्रमाण' नहीं मानते। ज्ञातव्य यह है कि पूर्वोक्त चार पक्षों में जो Bदूसरा पक्ष है और यहाँ जो प्रथम पक्ष कहा गया - उन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, पहले हमने Bदूसरे पक्ष का प्रतिकार कर दिया है इसलिये यहाँ प्रथम पक्ष का भी प्रतिकार हो जाता है। विशेषणविशिष्ट अर्थ का ग्राहक ऐसा द्वितीय पक्ष का स्वीकार अनुचित 30 है। कारण, नीलादिज्ञान भी नीलत्वादिविशेषणविशिष्ट ही अर्थ का ग्राहक होने से, उस में भी प्रत्यक्षत्व का भंग प्रसक्त होगा। [ प्रत्यक्षत्व विशेषणविशिष्टार्थग्रहण से विरुद्ध नहीं ] यदि कहा जाय कि प्रत्यक्ष विशेषणविशिष्टार्थग्राहि नहीं होता - तो यहाँ प्रश्न खडा होता है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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