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________________ खण्ड-४, गाथा-१ २१७ प्रमाणम् । अस्यार्थ:- इन्द्रियं द्रव्यत्वकरणत्वनियताधिष्ठानत्वातीन्द्रियत्वे सत्यपरोक्षोपलब्धिजनकत्वात् चक्षुरादि मनःपर्यन्तम्, तस्यार्थः = परिच्छेद्यः इन्द्रियार्थः । “पृथिव्यादिगुणा रूपादयस्तदर्थाः” ( ) इति तदर्थलक्षणत्वात् अर्थ इति लक्ष्यनिर्देश: तदर्थत्वं लक्षणं तदर्थत्वं चेन्द्रियार्थत्वम्। ____ ननु ‘तदर्थाः' इत्येतावदेवास्तु तदर्थलक्षणं पृथिव्यादि, गुणग्रहणं तु न कर्त्तव्यम् । न, तदर्थत्वेन लक्षणेन ये संगृहीतास्तेषां विभागार्थं पृथिव्यादिगुणग्रहणम्। तथा चोद्योतकरः - “पृथिव्यादिग्रहणेन 5 त्रिविधं द्रव्यमुपलब्धिलक्षणप्राप्तं गृह्यते गुणग्रहणेन सर्वो गुणोऽस्मदाधुपलब्धिलक्षणप्राप्त आश्रितत्वविशेषणत्वाभ्याम्” ( )। एवं च पृथिव्यादिगुणग्रहणं लक्ष्यविभागसूत्रोपलक्षणार्थम् । अब प्रमाण के 'प्रत्यक्ष एवं परोक्ष' दो भेदों में से प्रथम 'प्रत्यक्ष' प्रमाण के लक्षणादि की चर्चा का प्रारम्भ हो रहा है। (इस चर्चा में प्रथम नैयायिक सम्मत प्रत्यक्षलक्षण का निरूपण होगा। तब बौद्धवादी नैयायिक सम्मत विकल्प की प्रमाणता पर आक्षेप करेंगे - नैयायिक वादी उस का प्रतिकार 10 करेगा। तब अन्य वादी न्यायदर्शन के प्रत्यक्ष लक्षण पर दोष लगायेंगे और नैयायिक वादी फलपक्ष लेकर उस का निरसन करेगा। फिर नैयायिक विन्ध्यवासी के एवं जैमिनीयसूत्रकारप्रदर्शित प्रत्यक्ष के लक्षणों की आलोचना करेगा। उस के बाद सिद्धान्तवादी की ओर से न्यायसूत्रप्रदर्शित प्रत्यक्षलक्षण का निरसन आयेगा - इस में प्रासङिगकरूप से इन्द्रियों की प्राप्यकारिता - अप्राप्यकारिता एवं अन्धकार की भावअभावरूपता पर चर्चा आयेगी। फिर जैनमतानुसार प्रत्यक्ष के भेदों का निरूपण होगा। उस 15 के बाद नास्तिकवादी अनुमान के प्रामाण्य पर आक्षेप करेगा उस के सामने बौद्ध वादी उस का खंडन कर दिखायेगा। फिर अक्षपादसंमत अनुमान की अनेकविध व्याख्या और अनुमान के लक्षण का प्रदर्शन होगा। बौद्धमत के अनुमान का लक्षण दिखा कर नैयायिक के अनुमानलक्षण का विघटन किया जायेगा। बौद्धमत की और से मीमांसकसंमत अनुमान की चर्चा होगी। अन्त में जैनमतानुसार अनुमान का लक्षण प्रदर्शन होगा।) [ इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष-नैयायिक ] नैयायिक वादिवृंद यहाँ आगे आकर घोषणा करता है - बौद्धमतप्रदर्शित निर्विकल्प प्रत्यक्ष की प्रमाणता मत स्वीकारो, हम जो प्रत्यक्ष लक्षण कहते हैं - ‘इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य अव्यपदेश्य अव्यभिचारी व्यवसायस्वरूप ज्ञान प्रत्यक्ष है' - इस को स्वीकारो। इस लक्षण का भावार्थः :- चक्षु से ले कर मन तक (चक्षु, श्रोत्र-घ्राण-रसना-स्पर्शन एवं मन) ये छ इन्द्रियाँ हैं क्योंकि द्रव्यत्व-करणत्व-नियताधिष्ठानत्व- 25 अतीन्द्रियत्व के साथ अपरोक्ष उपलम्भ के जनक हैं। उन से विज्ञेय जो अर्थ यानी विषय हैं उन को ‘इन्द्रियार्थ' कहते हैं। (नैयायिक मत में इन्द्रियाँ द्रव्यात्मक ही होती है, वे प्रत्यक्ष की करण हैं यानी साधकतम हैं, प्रत्येक का इस शरीर में नियत स्थान हैं जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का कर्णशष्कुली इत्यादि, वे इन्द्रियाँ इन्द्रियगोचर नहीं है मतलब प्रत्यक्षग्राह्य नहीं होती। ऐसी इन्द्रियों से ही स्वविषयों की A.“पृथिव्यादिग्रहणेन पृथिव्यपतेजांसि बाह्यकरणग्राह्याणि अपदिश्यन्ते, गुणग्रहणेन च सर्व आश्रितो गुणः, इति संख्या-परिमाणपृथक्त्व-संयोग-विभाग-परत्वापरत्व-स्नेह-वेग-कर्म-सामान्यविशेषाः अनाश्रितश्च समवायस्तद्धर्मत्वाद् गुण इति" - न्यायवार्त्तिके पृ.७२ पं. २१/२८ - इति भू०सम्पादकटीप्पण्याम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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