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________________ १७८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तथैव सद्व्यवहारावतारि अवभासन्ते च क्षणिकतया सर्वे भावाः' इत्यनुमानमसङ्गतम् हेतोरसिद्धताप्राप्तेः। अथ तं प्रत्येतदनुमानमेव नोपादीयते तर्हि कं प्रत्येतदुपादेयम् ? 'यस्तयोविवेकं मन्यते तं प्रति' इति चेत् ? न, तं प्रत्यनुमानानर्थक्यात् तदन्तरेणापि तदर्थनिष्पत्तेः । यच्च तं प्रति भाविनि प्रवर्तकत्वादनुमानं प्रमाणं युक्तम् तत् ‘सर्वचित्त-चैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम्' ( ) इति वचनात् स्वरूपेऽभ्रान्तं बहिरर्थे 'भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमा* इति वचनात भ्रान्तम इत्येकमेव कथं द्विरूपम् ?! भी ज्ञान किसी भी विषय में 'प्रमाण' नहीं रहेगा। फलतः प्रमाणव्यवहार मात्र का विलोप प्रसक्त होगा। जो ऐसा मानते हैं कि - दृश्य (यानी दर्शनविषय) और प्राप्य (यानी विकल्प का विषय) दोनों में जिन्हें एकत्व का अविसंवाद होने का अभिमान है उन के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण है। लेकिन जिन्हें दृश्य-प्राप्य के भेद का पता है उन के लिये प्राप्य का अनुभव हो जाने पर भी उन के लिये प्राप्य 10 के विषय में वह दर्शन अप्रमाण है। - वे ऐसा भी क्यों नहीं मानते कि जिन्हें चन्द्रदर्शन होने पर उसी चन्द्र (क्षण) की प्राप्ति (विकल्प) का अभिमान होता है उन के लिये चन्द्र मात्र के विषय में (यानी एकत्व के बारे में भी) चन्द्रदर्शन प्रमाण है ? [पारमार्थिक सत्स्वरूपव्यवहारयोग्यता का अनुमान असंगत ] उपरांत, विवेक से अज्ञात जनों के लिये यदि एकत्व अनुभव न होने पर भी चन्द्रदर्शन को 15 प्रमाण मानेंगे तो आप का यह अनुमान असंगत ठहरेगा - अनुमान :- 'जो जैसा (जिस रूप से) भासित होता है वह वैसे ही पारमार्थिक सत्स्वरूपव्यवहार के योग्य होता है; उदा. नीलरूप से भासित होनेवाला नील पदार्थ नीलरूप से ही प्रामाणिकव्यवहार का विषय होता है। सभी भाव दर्शन में क्षणभंगुर रूप से अनुभूत होते हैं (अत एव वे क्षणिकव्यवहार के विषय हैं)।' इस अनुमान में हेतु असिद्धिदोष से ग्रस्त बना, क्योंकि आप तो विवेक से अज्ञात व्यवहारिजन के लिये अननुभूत एकत्व 20 के बारे में भी चन्द्रदर्शन को प्रमाण मानते हैं। मतलब कि 'यो यथा अनुभूयते.....' यह हेतु चन्द्रदर्शन में असिद्ध है। यदि कहें कि - विवेकी अज्ञात व्यवहारी के प्रति उस अनुमान का प्रयोग ही नहीं करेंगे। - तो किस के प्रति अनुमानप्रयोग करेंगे ? 'जो विवेकज्ञाता होगा उस के प्रति' - यदि अनुमानप्रयोग करेंगे तो वह निरर्थक ठहरेगा क्योंकि उक्त अनुमान के विना भी उस का तो काम हो चुका है, 25 क्योंकि उस को तो अनुमान के पहले ही पारमार्थिक सद्व्यवहार के विषय का भान हो गया है। यदि कहें कि – 'विवेकज्ञाता को भावि पदार्थ में प्रवृत्ति का प्रेरक बन कर अनुमान प्रमाण का प्रयोग सार्थक बनेगा' - तो यहाँ भी विरुद्धधर्मद्वय प्रसक्त होगा। कैसे यह देखिये - उक्तरूप से अनुमान को प्रमाण मानने पर उस में एक ओर अभ्रान्तता सिद्ध है क्योंकि आप का सिद्धान्त है कि सभी चित्त और चैतसिक पदार्थ आत्मसंवेदनरूप से प्रत्यक्ष हैं।' मतलब, अनुमान भी आत्मसंवेदनात्मक होने 30 से प्रत्यक्ष, अत एव अभ्रान्त मानना होगा। दूसरी ओर, उस में प्रामाण्य का आपादन करने के लिये ..भ्रान्तिरपि च वस्तुसम्बन्धेन प्रमाणमेव (प्र.वा.अलं.३-१७५)। 'तदाह न्यायवादी-भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमा (न्या.बि.धर्मो.पृ.७८)। भ्रान्तिरपि अर्थसम्बन्धता प्रमा (तत्त्वोप.पू.३०)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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