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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ तथाप्रतीत्यभावात् । न हि 'गौर्गच्छति' इत्युक्ते गमनक्रियाविशिष्टगवार्थप्रतीतिमन्तरेण गोपिण्डेन तद्वान् शब्दो लोकेनाऽवगम्यते । न च गोशब्दो गवार्थवाचकत्वेन गोशब्दत्वादनुमीयते किन्तु गवार्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या गवार्थवाचकत्वं तस्य गम्यते । प्रतिनियतपदार्थनिवेशिनां तु देवदत्तादिशब्दानां नान्वयः नापि पक्षधर्मता दृष्टान्ताभावात्। दृष्टान्त5 दान्तिकभेदे चानुमानप्रवृत्तेः । न च शाब्दं स्वभावलिंगजमनुमानम् शब्दस्यार्थस्वभावत्वासिद्धेः आकारभेदात् प्रतिनियतकरणग्राह्यत्वात् वाचकस्वभावत्वाच्च तस्य । नापि कार्यलिंगजम् अर्थाभावेऽपीच्छातः शब्दस्योत्पत्तेः । न च न बाह्यार्थविषयत्वेन शब्दस्यानुमानता सौगतैरभ्युपगम्यते अपि तु विवक्षाविषयत्वेनेति वक्तव्यम्, यतो यथा न तदर्थो विवक्षा तथा शब्दप्रामाण्यप्रतिपादनेऽभिहितम् (३२०-५) न पुनरुच्यते । 10 [ मीमांसकमतोक्तं वर्णानां वाचकत्वमसंगतम् ] न च मीमांसकाभिप्रायेण वर्णानां वाचकत्वम् अभिव्यक्तानभिव्यक्तपक्षद्वयेऽपि दोषात्। अनभिव्यक्तानां ज्ञानजनकत्वे सर्वपुरुषान् प्रति सर्वे सर्वदा ज्ञानजनकाः स्युः केनचित् प्रत्यासत्ति-विप्रकर्षाभावात् । अभिव्यक्तानां गोपिण्ड से अभिन्न अर्थवाला गो शब्द । ( मतलब शाब्दबोध में अर्थविशेष्यक ही बोध होता है। शब्दविशेष्यक बोध नहीं होता ।) वस्तुस्थिति यह है कि गोशब्दत्व हेतु से गो- अर्थवाचकत्वरूप से गोशब्द 15 की प्रतीति कभी नहीं होती, किन्तु गोअर्थप्रतीतिरूप शाब्दबोध के बाद की अन्यथा अनुपपत्ति से गोशब्द में गोअर्थवाचकत्व का अवबोध होता है । [ शाब्दप्रमाण स्वभावलिंगक अनुमान नहीं ] देवदत्तादि नाम तो ऐसे हैं जो एक-दो व्यक्ति के ही वाचक होते हैं (कोई बडा समुदाय नहीं जैसे गोशब्द पूरे गोसमुदाय का वाचक होता है) उन के लिये तो कोई अन्वयव्याप्ति बन नहीं सकती, 20 न पक्षधर्मता हो सकती है और दृष्टान्त भी नहीं मिलेगा, अतः अनुमानप्रवृत्ति भी नहीं हो सकेगी क्योंकि दृष्टान्त और दान्तिक (पक्ष) एक न होने पर ही अनुमान प्रवृत्त हो सकता है। शाब्द बोध स्वभावलिंगक अनुमानरूप भी नहीं है, क्योंकि घटादि शब्द कोई घटादिअर्थ का स्वभाव नहीं है। शब्द और अर्थ के आकार एक नहीं होते, शब्द सिर्फ श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य होता है जब कि अर्थ चक्षुरादि अन्य इन्द्रियों से ग्राह्य होता है । अर्थ वाचकस्वभाव नहीं है, शब्द वाचकस्वभाव है जब इतना 25 बडा भेद है तो शब्द अर्थ एक कैसे हो सकता है ? 'अनुमान जैसे बाह्यार्थ विषयक है वैसे शब्द भी बाह्यार्थविषयक है अतः अनुमानरूप क्यों नहीं ?' ऐसा हम बौद्ध नहीं कहते ( क्योंकि उन के मत में शब्द बाह्यार्थजन्य न होने से बाह्यार्थविषयक नहीं होता) किन्तु हम कहते हैं कि शब्द विवक्षाविषयक होते हैं" ऐसा कहना निषेधपात्र है क्योंकि शब्दप्रामाण्य के प्रकरण में ( ३२०- ५ ) हम कह चुके हैं कि विवक्षा शब्द का अर्थ नहीं हो सकती अतः यहाँ पुनरुक्ति नहीं करते । [ मीमांसक मत में वर्णों में अप्रामाण्य की आपत्ति ] मीमांसक दर्शन में वर्णों का वाचकत्व विकल्पों से संगत नहीं होता । अभिव्यक्त एवं अनभिव्यक्त दोनों पक्षों में दोष लगे हैं। यदि अनभिव्यक्त वर्णों को ज्ञानजनक मानेंगे तो एक के लिये ही ३२८ 30 www - Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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