SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ सम्भवति पूर्वोत्तरकालयोरपि तत्स्वभावप्रच्युतेः तावतः कार्यस्योदयप्रसक्तेः - इत्यादि क्षणिकतां व्यवस्थापयद्भिः सौगतैः प्रतिपादितम् न पुनरुच्यते ग्रन्थविस्तरभयात्। ततः क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रिया नित्याद् व्यावर्त्तमाना क्षणिकतायामेवावतिष्ठत इति कथं न सत्ता क्षणिकताव्याप्ता ? __ असदेतत्- यतो यद्यर्थक्रिया क्रमेणोत्पत्तिमती भिन्ना, हेतोः किमायातं येन तद्भेदाद्धेतोर्भेदो भवेत् ? 5 न ह्यन्यभेदादन्यद् भिन्नमतिप्रसंगात् । न च हेतोः प्रतिक्षणमभिन्नरूपत्वे एकस्वभावत्वादर्थक्रियाऽपि युगपद् भवेद्, यतो नायं नियमः एकस्वभावत्वे हेतोरर्थक्रियया युगपद् भवितव्यम् । यदि हि कारणसद्भावेऽर्थक्रिया युगपदुपलभ्येत तदा युगपदुदेति - इति व्यवस्था भवेत्, न च कारणाभेदेऽपि युगपदुदयमासादयन्ती सा ततो लक्ष्यत इत्यनुभवबाधितमर्थक्रियायोगपद्यम् । न च प्रतिक्षणविशरारुताऽविनाभूतः क्रमवदर्थक्रियोत्पादः क्वचिदुपलब्धो येन तदुदयक्रमात् तद्धेतोः प्रतिक्षणभेदः सिद्धिमासादयेत् । न चार्थक्रियाऽपि प्रतिक्षणं भेदवती 10 सिद्धा तत् कथं स्वयमसिद्धा हेतोः प्रतिक्षणभेदमवगमयति। न च सौगतानां कालाभावादर्थक्रियाक्रमो अर्थक्रिया कर देने पर दूसरे क्षण में वह बेकार बन जायेगा, अथवा दूसरे-तीसरे क्षण में भी एक साथ अर्थक्रिया-करण स्वभाव तदवस्थ होने से पुनः पुनः सकल-कार्यकारित्व का दोष खडा होगा। यह सब बौद्धों ने क्षणभंग की सिद्धि करते हुए कह दिया है, पुनरुक्ति ग्रन्थविस्तार के भय से नहीं करना है। सारांश, नित्य पदार्थ से क्रमिक-युगपद् अन्यतर प्रकार से अर्थक्रियाकारित्व की व्यावृत्ति 15 होने के कारण आखिर यह क्षणिक वस्तु के साथ ही दोस्ती कर पायेगी। तो वह क्षणिकत्व की व्याप्य क्यों नहीं होगी ? (क्षणिकता दीर्घपूर्वपक्ष समाप्त)। [ अर्थक्रियाभेद से हेतुभेद असिद्ध - उत्तरपक्ष ] उत्तरपक्ष :- पूरा कथन गलत है। पदार्थ और अर्थक्रिया दोनों एक नहीं है भिन्न है। अर्थक्रिया भिन्न है और क्रमिक है, लेकिन इस से पदार्थ का क्या दोष ? पदार्थ से क्या रिश्ता ? जिस से 20 कि अर्थक्रियाभेद से पदार्थ(क्षणों) का भेद हो जाय। एक पदार्थ के भेद से अन्य पदार्थ का भेद मानेंगे सो सर्वत्र भेद ही भेद रहेगा. एक व्यक्ति भी अभेदशाली नहीं रह पायेगी। ऐसा नहीं है कि - ‘हेतु (कारण) अनेक क्षणों में अभिन्न एकरूप है तो स्वभाव भी एक होने से युगपद् अर्थक्रिया हो जानी चाहिये' – हाँ, ऐसी व्यवस्था तब मानी जाती यदि ऐसा नियम होता कि एकस्वभाववाले हेतु से अर्थक्रिया एक साथ ही होनी चाहिये। यदि अनेकक्षणस्थायी किसी एक कारण से एक साथ सब 25 अर्थक्रिया दृष्टिगोचर होती तो एक साथ सब अर्थक्रिया हो सकने की स्थापना भी हो जाती, किन्तु कारण के एक रहते हुए भी एकसाथ सब अर्थक्रिया उदित होती हो ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता अतः एक साथ सब अर्थक्रियाओं का उदय का आपादन अनुभवविरुद्ध है। ऐसा भी कहीं नहीं दिखता कि क्रमिक अर्थक्रियोत्पत्ति क्षणभंगुरता की व्याप्य हो जिस से कि अर्थक्रियाक्रमिकोदय से उस के कारण में क्षणविनश्वरता की सिद्धि हो सके। [ प्रतिक्षण अर्थक्रिया भेद भी असिद्ध ] तथा, अर्थक्रिया भी प्रतिक्षण भिन्न भिन्न होने की सिद्ध नहीं है। तो स्वयं असिद्ध अर्थक्रियाभिन्नता कारण के प्रतिक्षणभेद का अवबोध कैसे करा सकती है ? बोद्धों के मत में कालपदार्थ स्वीकृत न ॐ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy