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________________ १६० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ न्याय्य(?नाप्य)न्यदाऽलौकिकत्वप्रतिपत्तिः, यतः 'नेदं रजतम्' इति कालान्तरेऽभावप्रतीतिस्तव जायते नाऽलौकिकत्वावगतिः। तदेवं प्रतिभासाऽविशेषात् प्रतिभासमानं केशोन्दुकादिवत् सर्वं निःस्वभावम्। तथाहि- नावभासमानो नीलादिरवयवी, देशादिभिन्नस्थूलस्य तस्यैकत्वानुपपत्तेः। न ह्यनेकदेशसम्बन्धविरुद्धधर्माध्यासवत एकत्वं युक्तम् तथाप्येकत्वे घट-पट(वि?यो)रपि न भेदो भवेत् विरुद्धधर्माध्यासादन्य5 स्याऽभेदकत्वात् । न च देशादिभेदेऽप्येकत्वप्रतिभासादेकता, देशादिभेदेन व्यवस्थितानामवयवानां प्रतिभासभेदादेव भेदात्। न ह्यवी?)म-मध्यो(वा)दिभागा ए(क)रूपतया प्रतिभा(न्)ति, पिण्डस्याणुमात्रतापत्तेः। न च तद्व्यतिरिक्तो ग्राह्याकारतां बहिर्बिभ्राणोऽवयवी प्रतिभाति । न च समानदेशतयाऽवयवेभ्यः पृथक्त्वस्याऽप्रतिभासो यतः समानदेशा अपि वातातपादयो भावाः पृथगवभासमाना लक्ष्यन्ते। न चैवमवयवनिर्भास इति नासौ तद्व्यवहारविषयः। न च ‘एको घटः' इति प्रतीतेरवयवो(?वी) अवयवव्यत्तिरिक्तम(?:सम)स्ति। 10 है उसी वक्त यह अलौकिकत्व भी गृहीत होता है - तब तो भ्रान्तदृष्टि स्वयं समझ जायेगा कि यह तो मेरे काम का नहीं (क्योंकि लौकिक नहीं है) अतः भ्रान्तदृष्टा की मरीचिजल में होने वाली प्रवृत्ति अनुपपन्न हो जायेगी। कारण :- जो तृष्णाशमनरूप अर्थक्रिया का अर्थी है उस की अलौकिकत्व ज्ञान से मरीचिजल में प्रवृत्ति का होना युक्तिसंगत नहीं है। यदि उसी वक्त नहीं किन्तु अन्य काल में अलौकिकत्व का पता चलेगा ऐसा कहा जाय तो वह भी स्वीकारार्ह नहीं। कारण :- आपने तो 15 कालान्तर में अलौकिकत्व का नहीं किन्त 'यह रजत नहीं है। इस ढंग के अभाव - की प्रतीति का स्वीकार किया है। इस प्रकार, तथाकथित भ्रान्त ज्ञान (जिस की किसी तरह न्यायतः उपपत्ति शक्य नहीं) एवं अभ्रान्त ज्ञान में कोई खास फर्क न होने से, केशोण्डुक की तरह ज्ञायमान वस्तुमात्र स्वभावविहीन है यह सिद्ध होता है। [ अवयवी की सत्ता की सिद्धि अशक्य ] 20 सर्व शून्यवादी के विरोध में अवयवी की सत्ता प्रदर्शित की जाय तो वह भी परीक्षासह नहीं ___ है। देखिये - भासमान नीलादि कोई स्थूल अवयवी नहीं है। उस में अवयवादि देशभेद-कालभेदादि के कारण एकत्व घटेगा नहीं। एक में अनेकदेशसम्बन्धरूप धर्म विरुद्ध है। विरुद्धधर्माध्यासग्रस्त हो उस में एकत्व नहीं हो सकता। फिर भी मानेंगे तो देशादिभेद से घट-पटादि का भेद भी लुप्त हो जायेगा, विरुद्धर्माध्यास के अलावा और कोई वस्तु का भेदक नहीं होता। यदि देशादिभेद के रहने 25 पर भी एकत्व-प्रतिभास से अवयवी-एकत्व स्वीकारेंगे तो यह शक्य नहीं, क्योंकि फिर तो देशादिभेद से अवस्थित अवयवों में भी प्रदेशभेद के बदले प्रतिभासभेद (चाहे वह सत्य हो या मिथ्या.) से ही भेद स्वीकारना पडेगा। आप जानते हैं कि अधोभाग-मध्यभाग-ऊर्श्वभाग ये एकरूप से भासित नहीं होते, अगर इन की एकता मानेंगे तो सभी पिण्डों में परमाणुपर्यन्त अवयवों की एकता प्रसक्त होगी, मतलब एकमात्र परमाणु अवयव ही शेष रहेगा। वास्तव में, अवयव से पृथक् ग्राह्याकार धारण करता 3 हुआ बाह्य अवयवी कोई दिखता नहीं। यदि कहें कि - ‘अवयवी पृथक् है, किन्तु अवयव-अवयवी की प्रदेश-समानता के कारण अवयवी की अवयवों से पृथक्ता लक्ष में नहीं आती।' – ठीक नहीं है, क्योंकि वायु-सूर्यकिरणादि भावों में प्रदेशसमानता के रहने पर भी वे भाव पृथक पृथक ज्ञायमान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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