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________________ खण्ड - ३, गाथा - ५ ११५ प्रकाशकभावः । अपि च, आलोकाद् घटादि: प्रकाशरूपः प्रादुर्भवतीत्यालोकः प्रकाशकः स्यात् उपकाराभावे व्यतिरिक्तोपकारप्रादुर्भावे वा घटादीनां प्रकाशायोगात् । न चात्राऽहंकारास्पदनं (?मं) तर्द (दर्श)नं बहिः परोक्षाकारमर्थं जनयति, तुल्यकालतया हेतुफलभावाऽयोगात् । उपकार्योपकारकभावमन्तरेण बाह्यार्थाना - मन्तर्दृशां च त ( ?वे) द्य-वेदकभावानुपपत्तेः सर्वं वस्तु स्वं ( ? सं ) विन्मात्रकमेवेति स्थितम् । [?? न च नीलादिव्यतिरिक्तबोधानभ्युपगमे नीलस्वरूपः प्रकाशः पीतस्य प्रकाशः न नीलप्रकाश 5 एव पीतस्य प्रकाशोऽभ्युपगम्यते ?? ] तयोर्भेदेन प्रतिपत्तेः । न हि नीलप्रकाशः पीतप्रकाशानुगामितया प्रतिभाति, नापि पीतात्मानुभवो नील ( ? ) स्वरूपानुभवप्रविष्टः प्रकाशत इति कथं नील- पीतयोरनुभवः ? तथाभ्युपगमे वा सर्वपदार्थसाङ्कर्यप्रसक्तिः । न च 'अनुभव.... अनुभवः' इत्येकरूपतयोत्पत्तेरनुभवस्यैकता, प्रतिपदार्थं 'स्वरूपम्... स्वरूपम्' इत्येकत्वाध्यवसायोत्पत्तेः सर्वपदार्थानां स्वरूपस्यैकताप्रसक्तेः । भी दर्शन की तरह स्वसंविदित मान लेना पडेगा । यही कारण है कि आप का सूर्यप्र घटादिवाला 10 उदाहरण भी असङ्गत है । स्पष्टता :- उस वक्त एक तो दिखता है सूर्यप्रकाश जो स्वभावरक्त होता है, तथा घटादि भी स्वभावनिष्ठ भासित होता है, दोनों अपने में मस्त होते हैं, न तो अन्योन्य कोई प्रकाशक होता है न प्रकाश्य । यदि आलोक को वहाँ प्रकाशक मानेंगे तो कैसे आलोक द्वारा प्रकाशमय घटादि का प्रादुर्भाव हुआ इस लिये ? यदि आलोक का कोई उपकार नहीं होगा, अथवा घट से भिन्न ही उपकार का प्रादुर्भाव मानेंगे तो उस से घटादि कोई उपकृत न हो सकने से उस 15 का प्रकाश भी नहीं हो सकेगा। ऐसा नहीं हो सकता कि अहंकारमय आन्तर्दर्शन परोक्षाकार बहिरर्थ को समकाल में निपजा दे, क्योंकि समकालीन भावों में कभी जन्य- जनकभाव नहीं होता । अत एव उन में उपकार्य-उपकारकभाव के भी न होने से बाह्यार्थ और अन्तर्दर्शन में वेद्य-वेदकभाव भी घट नहीं सकता ।। निष्कर्ष, वस्तुमात्र संवेदनमय ही होती है। [ नीलदर्शन - पीतदर्शन की ऐक्यापत्ति का निरसन ] पाठ अशुद्धि के कारण, सिर्फ यहाँ भावार्थ लिखते हैं - ] [ ?? न च... गम्यते प्रतिवादी :- नील वस्तु से भिन्न नीलबोध का स्वीकार न करे तो नीलस्वरूप एवं पीतस्वरूप प्रकाशद्वय में भेद कैसे होगा (बाह्य नील-पीत के आधार से ही प्रकाशद्वय में भेद हो सकता है ।) Jain Educationa International - वादी :- नील प्रकाश का स्वरूप और पीतप्रकाश का स्वरूप एक नहीं मानते हैं) क्योंकि दोनों का भान भिन्न भिन्न रूप से होता है। नील प्रकाश कभी पीतप्रकाशानुविद्धतया भासित नहीं होता, 25 एवं पीतप्रकाशानुभव कभी नीलप्रकाशगर्भित हो ऐसा अवभास नहीं होता फिर नील और पीत दोनों के एक अनुभव का अनिष्ट कैसे हो सकता है ? यदि किसी प्रकार से साम्य को ले कर उन के एकानुभव का आपादन करेंगे तो पदार्थमात्र में परस्पर संकीर्णरूपता की आपत्ति आयेगी। कारण :- अनुभव... अनुभव... इस प्रकार एक प्रकार की प्रतीति की उत्पत्ति के बल पर सभी अनुभवों की एकरूपता नहीं मानी जा सकती । अन्यथा प्रत्येक पदार्थ में 'स्वरूप... स्वरूप' इस प्रकार एकत्व 30 की प्रतीति की जा सकती है, फलतः सभी पदार्थों के स्वरूप में भिन्नता के लोप की या ऐक्य की प्रसक्ति होगी । For Personal and Private Use Only 20 www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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