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________________ खण्ड-३, गाथा-५ - तर्हि कथं न सत्प्रत्ययविषयता ? ___ तथाहि- यद्यसौ ‘भवति' इति प्रतीयते ‘सन्' इत्यपि प्रतीयेत । न हि ‘अस्ति-भवति-सद्भावा' इति शब्दानां कश्चिदर्थभेदो विद्वद्भिरिष्यते। अथ वा(चाऽ)भावात्मकतयैवासौ भवति। न, व्याहतत्वात् । यतो 'न भवति' इत्यभाव उच्यते स कथं भवति' इति ? 'स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिनियतेन रूपेणाऽप्रतिभासनात् 'अभावः' इत्येतदपि न वक्तव्यम्' – अत्यन्तपरोक्षचक्षुरादीनामप्यभावताप्रसक्तेः। न वाऽभावस्य भवितृषु 5 पर्युदासात् प्रसज्यप्रतिषेधो भिद्यते । न वाऽसद्रूपत्वस्य विधानात् स पर्युदासात् भिद्यते असद्रूपस्य भवनविरोधात्। 'भवति' इति हि भूत्या सत्तयाऽभिसम्बध्यते, एवं कथमसद्रूपस्य विधानम् ? विधि:(?धेः) सर्वदा प्राधान्यात् नअर्थश्च पर्युदास एवैको भवेत्। यतो यदि कुतश्चित् किञ्चिन्निवर्तेत तदा तत्पर्युदासेन तद्व्यतिरेकि परामृश्येत, न चैकं भवतिनिर्वृत्तिर्भवतीत्युक्ते, अर्थान्तरस्यैव कस्यचित् सर्वत्र विधानात् । एवं वस्वन्तरमेवोक्तं स्यात्, न तयोविवेकः, अविवेके च न पर्युदासः। 10 मान कर सहेतुक मान सकते हैं, अभावात्मक मान कर नहीं। [ अभाव और भवति का परस्परविरोध ] देखिये - यदि अभाव ‘भवति (होता है)' इस प्रकार प्रतीत होता है तो 'सत्' स्वरूप से भी प्रतीत होना चाहिये। अस्ति-भवति-सद्भाव इन शब्दोमें विद्वानों को कोई अर्थभेद प्रतीत नहीं होता - एक ही अर्थ भासता है। फिर भी वह अभावस्वरूप ही होने का पकड रखेंगे तो अभाव और 15 भवति का परस्पर विरोध होने से वह उचित नहीं होगा। कारण, 'न भवति' (= अभावसूचक है तो फिर वहाँ ‘भवति' (= होता है) कैसे संगत होगा ? ऐसा मत बोलना कि - ‘अपने ग्राहक ज्ञान में वह भासित होता है किन्तु किसी नियताकार से नहीं - इस लिये उसे 'अभाव' कहते हैं - निषेधकारण यह है कि यहाँ अत्यन्त परोक्ष नेत्रादि के लिये भी 'अभाव' व्यवहार प्रसक्त होगा, क्योंकि उन का भी (परोक्ष होने से) नियताकार भासन नहीं होता। [पर्युदास नकार से अर्थान्तरविधान का विमर्श ] ___ यह भी विचारणीय है कि 'न भवति' अथवा 'अभाव' में जो 'नञ्' (= निषेधवाचक नकार) है वह भवनशील पदार्थ के विषय में चाहे पर्युदास नञ् हो या प्रसज्य नञ् हो, कुछ तफावत नहीं। आखिर तो भवनक्रिया का निषेध ही होता है तो साथ में अभाव का भवन भी विहित हो जाता है। भवनविधान के बदले अगर असद्रूपता का विधान माने तो पर्युदास से वह पृथक् नहीं हो सकता क्योंकि 25 असद्रूप का भवन के साथ विरोध है - इस तरह कि 'भवति' स्थल में भूति के साथ सत्ता का अन्वय न किया जाता है - तो वहाँ असद्रूपता का विधान कैसे ? विधि (= विधान) का तो हमेशा प्राधान्य होने से नकार का अर्थ पर्युदासात्मक एक ही होगा। कारण, एक पदार्थ जब दूसरे से जुदाई रखता है तब उसे के पर्युदासात्मक निषेध के द्वारा उसके असमान पदार्थ का परामर्श करता है। तब एकत्व वहाँ सावकाश नहीं है। 'निवृत्तिः भवति (= होती है)' ऐसा कहने पर किसी अन्य अर्थ का विधान 30 सर्वत्र होता है। इस प्रकार ‘अभाव' पद से किसी अर्थान्तर का ही निरूपण होता है, न कि उस का -. 'चैवं' इति पूर्वमुद्रिते पाठः । अस्माभिस्तु तत्रैव अधोनिर्दिष्टं पाठान्तरं गृहीतमिति । 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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