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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् गोशब्दादप्रतीतेरस्त्यर्थवाचकत्वं शब्दस्याभिप्रेतम्, नन्वेवं यदा गोत्वादिना विशिष्टमर्थमात्रमुच्यते इति मतं तदा तद्वतोऽर्थस्याभिधानमङ्गीकृतं स्यात्, तत्र च जातेस्तत्समवायस्य च निषेधात् तद्वतोऽर्थस्यासम्भवः इति पूर्वोक्तो दोषः । किंच तद्वतोऽर्थस्य स्वलक्षणात्मकत्वादशक्यसमयत्वमव्यवहार्यत्वमस्पष्टावभासप्रसङ्गश्च पूर्ववदापद्यत एव स्वलक्षणादिव्यतिरेकेणान्योऽस्त्यर्थो निरूप्यमाणो न बुद्धौ प्रतिभातीत्यस्याऽसत्त्वमेव । [ २ – समुदायपदार्थवादिमतनिरसनम् ] समुदायाभिधापक्षे तु जातेर्भेदानां च तपःप्रभृतीनामभिधानमङ्गीकृतमिति प्रत्येकाभिधानपक्षभाविनो दोषाः सर्वे युगपत् प्राप्नुवन्तीति न तत्पक्षाभ्युपगमोऽपि श्रेयान् । [ ३-४ असत्यसम्बन्ध-असत्योपाधिसत्यपदार्थनिरसनम् ] ‘असत्यसम्बन्ध-असत्योपाधिसत्य' इति पक्षद्वये च संयोगसमवायलक्षणस्य सम्बन्धस्य निषिद्धत्वात् सामान्यस्य च त्रिगुणात्मकस्य सत्यस्याऽव्यतिरिक्तस्य, व्यतिरिक्तस्याप्यसम्भवात् नासत्यः संयोगः नाप्यसत्योपाधि सामान्यं शब्दवाच्यं सम्भवति । ३८ [ ५-६ अभिजल्पबुद्ध्यारूढाकारपदार्थवादिमतद्वयनिरसनम् ] अभिजल्पपक्षेऽपि यदि शब्दस्य कश्चिदर्थः सम्भवेत् तदा तेन सहैकीकरणं भवेदपि, स्वलक्षणाको आप स्वलक्षण से भिन्न मानेंगे तो वह असत् ही होगा क्योंकि स्वलक्षणभित्र कोइ अस्तिरूप अर्थ शब्दवाच्य हो ऐसा कभी बुद्धि में आया नहीं है । ★ २ - समुदाय शब्दार्थ नहीं है ★ ब्राह्मणादिशब्दों से तप-जाति श्रुतादि का समुदाय ध्वनित होता है - इस पक्ष में जाति और तप आदि का प्रतिपादन मान्य किया गया है, किन्तु इस पक्ष की मान्यता भी श्रेयस्करी नहीं है चूँकि जाति आदि एक एक के पक्ष में जो दोष पहले दिखाये गये हैं वे सब एक साथ इस पक्ष में लग जायेंगे । स्वलक्षण की तरह जाति या जातिमान आदि में संकेत का सम्भव नहीं है इत्यादि दोष पहले कह दिये हैं । ★ ३ - ४ असत्यसम्बन्ध, असत्योपाधिसत्य शब्दार्थ नहीं ★ तीसरे पक्ष में कहा था कि अनिर्धारित स्वरूपवाले द्रव्यत्वादि के साथ जो द्रव्यादि का सम्बन्ध होता है वही शब्द का वाच्य है । एवं चौथे पक्ष में कहा था कि सत्य उपाधियों के अन्तर्गत जो सत्य छीपा रहता है वही शब्द का वाच्यार्थ है- ये दोनों पक्ष ठीक नहीं हैं । कारण तीसरे पक्ष में संयोग या समवायरूप कोई भी सम्बन्ध कहा जाय, किन्तु हमने पहले ही उस का प्रतिषेध कर दिया है इसलिये असत्य संयोग (या समवाय) शब्द का वाच्यार्थ नहीं हो सकता । चौथे पक्ष में असत्य उपाधियों के बीच छीपे हुए सत्य को यदि सामान्यतत्त्व के रूप में स्वीकार करेंगे तो बात यह है कि सांख्य की तरह सत्त्वरजस्तमस की साम्यावस्था रूप सामान्य को उन उपाधियों से अभिन्न मानेंगे या नैयायिकों की तरह भिन्न किसी भी विकल्प में ऐसे सामान्यरूप सत्य की सम्भावना शक्य न होने से असत्य उपाधियों में छीपे हुए सत्य को शब्द का वाच्यार्थ कहना सम्भव नहीं है । ★ ५ - ६ अभिजल्प और बुद्धि- आकार शब्दार्थ नहीं है ★ पाँचवे अभिजल्प पक्ष में जो ' शब्द का अर्थ के साथ एकीकरण' की बात कही है वह तभी संभव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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