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________________ ३२८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् रवगतस्याप्यर्थस्य भेदः । न च दृगेव प्रतिक्षणमपरापरा अर्थस्त्वभिन्न एवेति वक्तव्यम्, दृग्भेदादेव दृश्यमानस्यार्थस्य भेदसिद्धेः । तथाहि - यदैका दृक् स्वकालावधिमर्थसत्तां वेत्ति न तदा परा यदा चापरोत्तरकालमर्थवगमयति न तदा पूर्वेति न तत्प्रतिभासितत्वम् - यतो वर्तमानसंविदस्तीति तदुपलभ्यमानतैवास्तु न तु पूर्वगुपलभ्यमानता - अतधोपलम्भभेदादुपलभ्यमानताभेदः । न च पूर्वापरदर्शनोपलभ्यमानता भिन्नैव उपलभ्यमानं तु रूपमभिन्नम्, यतो यदा पूर्वोपलभ्यमानतायुक्तोऽर्थः प्रतिभाति न तदोत्तरोपलभ्यमानतासंगतः, यदा चोत्तरोपलभ्यमानतया परिगतो वेद्यते न तदा पूर्वोपलभ्यमानतयेति कथं पूर्वापरोपलम्भोपलभ्यमानस्य रूपस्य न भेदः ? न चोपलभ्यमानताऽतिरिक्तमुपलभ्यमानं रूपमस्ति, तथाऽननुभवात् । अतः कथं नोपलभ्यमानताभेदादपि तद्भेदः ? तत् स्थितमविच्छिन्नविशददर्शनपरम्परायामपि प्रतिक्षणमर्थभेदः । स्वयं हस्ती में नहीं । “जो जब नहीं होता वह उस काल में तत्कालीन अर्थ का अवबोध नहीं कर सकता" यह नियम तो स्वीकारना होगा, अन्यथा- एक ही क्षण के दर्शन से संपूर्ण अतीतकाल के पदार्थों का अवबोध हो जाने का अनिष्ट प्रसंग आ पडेगा । प्रतिभासमानता या उपलब्धि ही पदार्थसत्ता होने से अर्थ भी दर्शनसमकालीन सिद्ध होता है, अत: निरन्तर जारी रहनेवाले दर्शन के होते हुये भी वहाँ नये नये क्षण में जो नये नये दर्शन का जन्म होगा उन के भेद से ही उन से गृहीत होनेवाले अर्थों में भी भेद सिद्ध होगा । ★ दर्शनभेद से अर्थभेद की सिद्धि★ यदि ऐसा कहें कि वहाँ प्रतिक्षण दर्शनभेद भले हो किन्तु अर्थभेद होने में कोई प्रमाण नहीं है - तो यह ठीक नहीं, जब दर्शन भिन्न भिन्न है तब उन के भेद से दृश्यमान अर्थों में भेद ही सिद्ध होता है । कैसे यह देखिये - जिस काल में एक दर्शन, अपने काल की सीमा में रहे हुये अर्थ की सत्ता का अवबोध करता है - उस काल मे अन्य दर्शन अर्थ का अवबोध करा सकता नहीं । जब दूसरा दर्शन उत्तर काल में अपने समानकालीन अर्थ का अवबोध करता है उस काल में पूर्वकालीन दर्शन किसी अर्थ का अवबोध करा नहीं सकता । ऐसा इस लिये कि संवेदन अपने अपने काल में वर्तमान होते हैं और उन के आधार पर ही उस काल के अर्थ में उपलभ्यमानता होती है, पूर्वकालीन संवेदन के आधार पर उपलभ्यमानता वस्तु में नहीं होती । इस प्रकार उपलम्भ के भेद से उपलम्भयोग्यता भिन्न भिन्न ठहरती है। वही अर्थसत्ता रूप है इस लिये उस में भी भेद हो जाता है। ऐसा अगर कहें कि - पर्व अपर दर्शनों से उपलभ्यमानतारूप संस्कार का भेद भले हो किन्तु उस का आश्रय जो उपलभ्यमान अर्थ है वह तो अभिन्न होता है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जब पूर्वोपलभ्यमानतासंस्कारवाला अर्थ प्रतिभासित होता है तब उत्तरोपलभ्य - मानता संस्कारवाला अर्थ प्रतिभासित नहीं होता - जब उत्तर उपलभ्यमानता से सम्बद्ध अर्थ भासित होता है तब पूर्वोपलभ्यमानतावाला अर्थ भासित होता नहीं, इस प्रकार दोनों भिन्न भिन्न भासित होते हैं तब पूर्व-उत्तर उपलम्भ से उपलब्ध होने वाला अर्थ एक अभिन्न कैसे माना जा सकता है ? क्योंकि वैसा अनुभव नहीं होता कि उपलभ्यमानता और उपलभ्यमानरूप अलग अलग है इसलिये उपलभ्यमानता से अतिरिक्त कोई उपलभ्यमानरूप अर्थ भी नहीं है जिससे कि भिन्न भिन्न उपलभ्यमानता के होते हुये भी उपलभ्यमानरूप को एक दिखा सके । तब उपलभ्यमानता के भेद से उपलभ्यमानरूपों का भेद क्यों सिद्ध नहीं होगा ? निष्कर्ष यह आया कि अविच्छिन्न दर्शनधारा में भी प्रतिक्षण भासित होने वाले अर्थों में भेद होता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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