SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् - मा भूत् संशयोत्पादनेन वाक्यस्य शास्त्रश्रवणादिप्रवृत्तौ सामर्थ्यम्, किन्तु प्रकरणारम्भप्रतिषेधाय 'नारब्धव्यमिदं प्रकरणम्, अप्रयोजनत्वात्, काकदन्तपरीक्षावत्' इति व्यापकानुपलब्धेरसिद्धतोद्भावनाय तदुपन्यासः- इति चेत् ? एतदप्यसद्, यतः शास्त्रप्रयोजनं वाक्येनाऽप्रदर्शयता तदसिद्धिरुद्भावयितुमशक्या, वाक्यस्याऽप्रमाणतया प्रयोजनविशेषसद्भावप्रकाशनसामर्थ्याभावात् । न च सप्रयोजनत्वेतरयोः परस्परपरिहारस्थितयोः कुतश्चित् प्रमाणादेकभावाप्रतिपत्तावितराभावप्रतिपत्तिः - अतिप्रसंगात् - येन वाक्यमात्रस्योपक्षेपेण हेतोरसिद्धिः स्यात् ! नाऽपि कुतश्चित् प्रयोजनविशेषमुपलभ्य(भ)मानेन स्वयमुपलब्धप्रयोजनविशेषोपलम्भोपायमप्रदर्शयता कर्तुं शक्या असिद्धतोद्भावना, वाक्यस्याप्रमाणस्य हेतुप्रतिपक्षभूतार्थोपस्थापनाऽशक्तस्योपन्यासमात्रेणाऽसिद्धेश्योगात् । नाप्यनिबन्धना प्रतिपत्तिः अतिप्रसंगात् । अथ यद्यप्यप्रमाणत्वाद् विपरीतार्थोपस्थापनमुखेनाऽसिद्धतामिदं नोद्भावयति तथापि शास्त्रस्य निप्रयोजनता संदिग्धाऽतः, संदिग्धनिष्प्रयोजनत्वस्य शास्त्रस्य प्रयोजनाऽभावं निश्चितं प्रेक्षावदारम्भप्रतिषेधहेतुं प्रयुञ्जानोऽनेन वाक्येन प्रतिक्षेप्तुमिष्टः न पुनः प्रयोजनविषयनिश्चय एवोत्पादयितुमिष्टः । न हि प्रतिपक्षोपउससे प्रवृत्ति होगी, फिर प्रयोजनवाक्य का उपन्यास क्यों किया जाय ? ★ आदिवाक्य प्रकरणारम्भायोग्यता अनुमान हेतुअसिद्धता का सूचक* यदि ऐसा कहें कि - संशयजनन द्वारा शास्रश्रवणविषयक प्रवृत्ति कराने के लिये आदिवाक्य को समर्थ न मानना हो तो मत मानिये । फिर भी उसका उपन्यास प्रतिवादी के एक अनुमान का निरसन करने के लिये आवश्यक है । प्रतिवादी प्रकरणारम्भ का निषेध करने के लिये ऐसा अनुमान प्रस्तुत करते हैं कि - "यह (प्रस्तुत) प्रकरण आरम्भ करने लायक नहीं है, क्योंकि वह प्रयोजनशून्य है जैसे कौए के दाँतो की परीक्षा (निःप्रयोजन होने से आरम्भ करने लायक नहीं होती)" - इस अनुमान में आरंभ योग्यता की व्यापकीभूत प्रयोजनवत्ता [जहाँ आरम्भयोग्यता होती है वहाँ प्रयोजनवत्ता अवश्य होती है इस प्रकार प्रयोजनवत्ता व्यापक है, उस] की अनुपलब्धि को हेतु बनाया गया है । इस हेतु में असिद्धता दोष का उद्भावन करने के लिये - यानी प्रस्तुत प्रकरण प्रयोजनशून्य नहीं है यह दीखाने के लिये आदिवाक्य का उपन्यास करना निर्दोष है - तो यह भी ठीक नहीं है - क्योंकि वाक्य कोई ऐसा ठोस प्रमाण ही नहीं है, प्रमाणरूप न होने से ही उसमें प्रयोजनविशेष के अस्तित्व को प्रगट करने का सामर्थ्य भी नहीं हो सकता । तब उससे अनुमानहेतु की असिद्धता का निरूपण कैसे हो सकेगा ? तथा, सप्रयोजनत्व और निष्प्रयोजनत्व दोनों एक दूसरे को छोड कर रहनेवाले धर्म हैं । इस लिये, जब तक किसी एक प्रमाण से उन दोनों में से एक के सद्भाव का उपलम्भ न हो जाय तब लग दूसरे के अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता । यदि हो जाय तो यह अतिप्रसंग होगा कि एक-दूसरे को छोड कर रहनेवाले दो धर्मों गोत्व-अश्वत्वादि में से, कोई एक प्रमाण से किसी एक गोत्वादि का उपलम्भ न होने पर भी अश्वत्व के अभाव का उपलम्भ हो जायेगा । प्रस्तुत में वाक्य जब प्रमाणभूत ही नहीं है तो उससे किसी एक (सप्रयोजनत्व) धर्म के उपलम्भ का भी सम्भव नहीं है तो फिर वाक्य के उपन्यास से व्यापकानुपलब्धिरूप हेतु को असिद्ध कैसे ठहराया जा सकता है ?! सम्भव है कि आपको किसी ओर प्रमाण से प्रयोजन विशेष का उपलम्भ हो भी गया हो, किन्तु जब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy