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________________ प्रथमखण्ड-का० १-3 ५५१ विनश्यदवस्थं चेव तां कुर्यात् . अन्या तहि ततोऽर्थान्त र भूता विनत्यवरथा कल्पनीया, तया तदभिसम्बन्धाभावः अनुपकारात । उपकारे वा तदवस्थः प्रसंगः अनवस्था च । तथा चापरापरविनश्वदवस्थोत्पादनेनोपक्षीणशक्तित्वात प्रकृतकार्योत्पादनमनवसरं प्रसक्तम् । 'विश्यववस्थ यास्तत्र समवायात् तद् विनश्यवस्थम्' इत्यपि वार्तम्, विहितोत्तरत्वात् । प्रथाभिन्ना तहि विनश्यदवस्था कारणकसमयमगना, एव च विनश्यदरस्थं कारणं कार्य करोतीति कोऽर्थः ? स्वोत्पत्तिकाल एव करोतीत्यर्थः समायातः । तथा च कार्य-कारणयोः सव्येतरगोविषाणवदेककालत्वादन कार्य-कारणभावः। तथापि तद्भावे सकलकायप्रवाहस्यकक्षणत्तित्वम् । अथ न सौगतस्येवाणोरण्यन्तरव्यतिक्रमलक्षणेन क्षणेन क्षणिकत्वम् येनायं दोषः, किंतु षट्समयस्थित्यनन्तरनाशित्व तत् । ननु कालान्तरस्थायिनि तथा व्यवहारं कुर्वन सहस्रक्षणस्थायिन्यपि तत्र तं कि न कुर्यात् ? अपि च, पूर्वपूर्वक्षणसत्तात उत्तरोत्तरक्षणसत्ताया भेदाभ्युपगमे तदेव सौगतप्रसिद्ध क्षणिकत्वमायातम् । प्रभेदाभ्युपगमे पूर्वक्षणसत्तायामेवोत्तरक्षणसत्तायाः प्रवेशादेकक्षणस्थायित्वमेव, न षटक्षणस्थायित्वं बुद्ध : परपक्षे संभवति । भेदेतरपक्षाभ्युपगमे चानेकान्तसिद्धिः, षट्क्षणस्थानानन्तरं च निरन्वयविनाशे न ततः किंचित कार्य संभवतीत्युक्तम् । विनज्यवस्था को उत्पन्न कर सकता है तो फिर प्रस्तुत कार्य को भी कर लेगा, बीच में विनश्यदवस्था की कल्पना करने से क्या फायदा? [हिनश्यदवस्थावाले कारण से कार्योत्पत्ति असंगत ] २. यदि विनश्यद वस्थावाला कारण प्रथम विनश्यदवस्था को उत्पन्न करता है तो वह द्वितीय विनध्यदवस्था भी उससे भिन्न ही मानेंगे, फिर स्वकृत उपकार के विना उसके साथ कोई सबन्ध नहीं हो सकेगा, अत: उपकार को मानेगे तो वही पूर्वोक्त अतिप्रसंग होगा और उसकी भी परम्परा चलेगी। फलतः अन्य अन्य विनश्यदवस्था को उत्पन्न करने में ही कारणशक्ति उपक्षीण हो जाने से प्रस्तुत कार्य की उत्पत्ति का तो अवसर ही दुर्लभ बना रहेगा । यदि कहें कि उपकार के विना ही विनश्यदवस्था के समवाय से उस कारण में 'विनश्यदवस्थावाला' ऐसा व्यवहार किया जा सकेगा-तो यह प्रलापमात्र है, समवाय ही असिद्ध है यह पहले बार बार तो कह दिया है। ___B यदि कहें कि वह विनश्यदवस्था कारण से अभिन्न है- तब तो कारणसमान समयवाली ही विनश्यदवस्था हुई तो अब यह कहिये कि विनश्यदवस्थावाला कारण कार्य करता है इसका क्या अर्थ ? अपनी उत्पत्ति के काल में करता है यही अर्थ कहना होगा। इस प्रकार उत्पत्ति काल में ही कारण और उससे कार्य दोनों उत्पन्न होंगे तो दायें-बायें गोशृङ्गों की तरह उनमें कारण-कार्य भाव ही नहीं घटेगा क्योंकि समानकालीन भावों में कारण-कार्य भाव नहीं हो सकता। यदि फिर भी आप समानकाल में कारण-कार्य भाव मानते हैं तब तो वह कार्य भी जिसका कारण है उस कार्य को उसी काल में (अपनी उत्पत्ति के काल में) कर देगा, वह भी जिस का कारण होगा उस कार्य को उसी पल में कर देगा, इस प्रकार तो सकल भावि कार्य सन्तान की उसो एक क्षण में उत्पत्ति आपन्न होगी। [ज्ञान में षट्क्षणस्थिति भी अनुपपन्न ] नैयायिकः-आपने जो क्षणिकत्व के ऊपर दोष दिये वे बौद्धमत में लगते हैं हमारे मत में नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट गति से एक अणु दूसरे निरन्तरवर्ती अणु के स्थान में पहुँच जाय उतने काल को क्षण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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