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________________ सम्मतिप्रकरण काण्ड-१ तदुक्तम्--जातेऽपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते । यावत्कारणशुद्धत्वं, न प्रमाणान्तराद् गतम् ॥ तत्र ज्ञानान्तरोत्पादः प्रतीक्ष्यः कारणान्तरात् । यावद्धि न परिच्छिन्ना शुद्धिस्तावदसत्समा ॥ तस्यापि कारणशुद्धर्न ज्ञानस्य प्रमाणता । तस्याप्येवमितीच्छंस्तु न क्वचिद् व्यवतिष्ठते ॥ इति । । श्लो० वा० सू० २-४६ तः ५१ ] तेन 'ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयाः' इति प्रयोगे हेतोरसिद्धिः । तस्मात् स्वसामग्रीत उपजायमानं प्रमाणमर्थयायात्म्यपरिच्छेदशक्तियुक्तमेवोपजायत इति स्वकार्यऽपि प्रवृत्तिः स्वतः इति स्थितम् । [ कारणगुणज्ञान की अपेक्षा का कथन व्यर्थ है ] अब यदि आप इस अनवस्था को दूर करने के लिये कहते हैं-'प्रमाण के कारणगुणों का ज्ञान अपने कारण गुणों के ज्ञान की अपेक्षा विना ही अपने प्रमाणकारणगुण यथार्थपरिच्छेद रूप कार्य में प्रवृत्त होता है।' तब जो बात आप प्रमाणकारणगुणों के ज्ञान के लिये कहते हैं वही बात प्रमाण को भी लागू हो सकती है। अर्थात् यह कह सकते हैं कि इस प्रकार प्रमाण भी अपने कारणगुणों के ज्ञान की अपेक्षा विना ही अर्थतथाभावपरिच्छेद रूप अपने कार्य में प्रवृत्त हो सकता है। तब प्रमाण की स्वकार्य में प्रवृत्ति के लिये अपने कारणों के गुणों के ज्ञान की अपेक्षा करना व्यर्थ है। फलतः, प्रमाण की अपने कार्य में प्रवृत्ति होने के लिये अन्य की अपेक्षा नहीं रहती। 'जातेऽपि यदि०'....इत्यादि तीन श्लोकों में यही बात कही गई है जिसका सारांश यह है कि___ ज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी अन्य प्रमाण से कारणों की शुद्धि (यानी दोषाभाव या गुण) प्रतीत न हो वहाँ तक अगर पदार्थ का निश्चय नहीं होता है तो इस दशा में उन प्रमाणकारणों से अतिरिक्त कारणों द्वारा ( शुद्धिविषयक ) एक अन्य ज्ञान के जन्म की प्रतीक्षा करनी होगी क्योंकि क कारणों की शद्धि निश्चित नहीं है तब तक वह शद्धि असत (यानी शशसींग) तत्य है। उस वषयक) ज्ञा ) ज्ञान का भी प्रमाण भाव तब तक निश्चित नहीं होगा, जब तक उस शुद्धिविषयक ज्ञान के कारणों को भी शुद्धि का निश्चय नहीं है। इस प्रकार अन्य ज्ञानों का प्रमाणभाव भी अन्य अन्य- ज्ञान को अपेक्षा करता है ऐसा मानने पर परतः प्रामाण्यवादी के मत में प्रथम ज्ञान का ही प्रामाण्य सिद्ध नहीं हो सकेगा। क्योंकि-अन्य अन्य ज्ञान की अपेक्षा का कहीं भी अन्त ही नहीं आयेगा। [परतः प्रामाण्य पक्ष में हेतु की असिद्धि ] इससे यह निष्कर्ष आया-आपने जो 'ये प्रतीक्षित-प्रत्ययान्तरोदयाः न ते स्वतो व्यवस्थितधर्मका: यथाऽप्रामाण्यादयः' इस अनुमान का प्रयोग किया था उस प्रयोग में 'ज्ञानान्तरोदयप्रतीक्षा' हेतु असिद्ध है। इसलिये, प्रमाण जब अपनी सामग्री से उत्पन्न होता है तब अर्थतथाभावपरिच्छेद' रूप अपने कार्य की शक्ति से युक ही उत्पन्न होता है इसलिये प्रमाण अपने कार्य में भी स्वत: प्रवृत्त होता है, अन्य की अपेक्षा से नहीं । अब तक, प्रामाण्य की उत्पत्ति और प्रामाण्य का कार्य ये दोनों (दि ॐ प्रयोगः १०५-पं. ५ मध्ये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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