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________________ प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः ४७५ यथाभूतोऽधूमव्यावृत्तो धूमोऽनग्निव्यावृत्तेनाऽग्निना व्याप्तो विपर्यये बाधकप्रमाणबलादवसितो गिरिशिखरादावुपलभ्यमानस्तद्देशमग्निसामान्यमनियततार्ण--पार्णाद्यग्निध्यक्तिसमाश्रितमनुमापयति; नवं कार्यत्वमात्रं बुद्धिमत्कारणसामान्येन व्याप्तं विपर्यये बाधकप्रमाणबलाद निश्चितं किंतु कारणत्वमा(णमा) त्रेण व्याप्तं तत् तबलाद निश्चितम् , तच्चोपलभ्यमानं क्षित्यादौ कारणमात्रमनुमापयति यथा गिरिशिखरादावुपलभ्यमानो धूमस्तत्सम्बद्धमग्निमात्रमनियतव्यक्तिनिष्ठम् , तेन 'पृथिव्यादिगतकार्यदर्शनात् कर्बदशिनस्तदप्रतिपत्तिवत् शिखर्यादिगतवह्नयाद्यदशिनां धूमादपि तदप्रतिपत्तिरस्तु' इति कोऽन्योऽनुमानस्वरूपविदो भवतो वक्तु क्षमः ? ! यदि हि कार्यविशेषाद्धमलक्षणादुपलभ्यमानाद् गृहीताऽविनाभावस्य पुसोऽग्निलक्षणकारणविशेषप्रतिपत्तिगिरिशिखरादौ भवति तदा कार्यमात्रात् पृथिव्यादावुपलभ्यमानाद (नाद) बुद्धिमत्कारणविशेषस्य तत्र प्रतिपत्तौ किमायातम् ? कारणमात्रप्रतिपत्तिस्तु ततस्तत्र भवत्येव, 'सुवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति' इतिच्यायात् । अत एवान्यस्य सम्बद्धस्यान्यतः प्रतिपत्तो कार्य-कारणावगमादौ प्रयत्नः कार्यः, अन्यथा तदुत्थप्रमाणस्य प्रमाणाभासता स्यात् । यत्तु 'न चाऽत्र शब्दसामान्यं वस्त्वनुगमो नास्तीति युक्तं वक्तुम् , धमादावपि शब्दसामान्यस्य ववतु शदयत्वाद्' इति, तदप्यसंगतम् , धमादिवैलक्षण्येन पृथिव्यादौ कार्यत्वस्य बुद्धिमत्कारणत्वाऽव्याप्ते: शब्दसामान्यस्य साधितत्वात । इस पूर्वपक्ष की आपत्ति का प्रतिकार पहले ही कर दिया है। [ देखिये-पृ. ४६६ ] यहाँ भी दिखाते हैं [ कार्यत्व केवल कारणन्य का ही व्याप्य है ] विपरीत शंका बाधक प्रमाण के बल से, जिस प्रकार का अधूमभिन्न धूम अनग्निभिन्न अग्नि के साथ व्याप्तिवाला ज्ञात किया है उसी प्रकार का ( अधूम-यावृत्त ) धूम यदि गिरि-शिखरादि के ऊपर उपलब्ध होता है तो वहाँ किसी भी प्रकार के तृणजन्य या पर्णजन्य अग्निव्यक्ति में आश्रित अग्निसामान्य का अनुमान करा देता है । कार्यत्व स्थल में ऐसा नहीं है, विपरीत शका में बाधक प्रमाण के बल से कार्यत्व को बुद्धिमत्कारणसामान्य के साथ व्याप्ति होने का निश्चय ही नहीं है, यहाँ तो विपरीत शंका में बाधक प्रमाण के बल पर कायत्व की केवल सकारणकत्व के साथ ही व्याप्ति निश्चित हो सकती है । अतः पृथ्वी आदि में उपलब्ध कार्यत्व से केवल कारण सामान्य का ही अनमान हो सकता है जैसे कि गिरिशिखरादि ऊपर उपलब्ध धूम से केवल गिरिशिखरादिसम्बद्ध अनियत व्यक्ति आश्रित अग्नि सामान्य का ही अनुमान होता है । अत: आपने जो यह कहा है-पृथ्वी आदि गत कार्य के दर्शन से कर्ता न देखने वाले को यदि कर्ता का अनुमान नहीं मानेगे तो पर्वतादिगत अग्नि न देखने वाले को धूम देख कर भी अग्नि का बोध नहीं होगा-यह तो आप से अतिरिक्त और कौन कहने का साहस करेगा यदि अनुमानस्वरूप को वह जानता होगा? [बुद्धिमत्कारण विशेष की उपलब्धि निमूल है ] यह तो सोचिये कि-व्याप्तिज्ञानवाले पुरुष को धूमात्मक कार्यविशेष के उपलम्भ से यदि गिरिशिखरादि के ऊपर रहे हए अग्निरूप कारण विशेष की अनुमिति होती है तो इतने मात्र से पथ्वी आदि में उपलब्ध कार्यत्वसामान्य से बुद्धिमान् कारणविशेष की उपलब्धि कहाँ से हो सकती है? हाँ, कारणसामान्य की उपलब्धि कार्यत्व सामान्य से वहाँ होने की बात ठीक है, क्योंकि सुपरीक्षित www.jainelibrary.org Jain Educationa International For Personal and Private Use Only
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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