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________________ ४०६ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अन्ये मन्यन्ते-यथा प्रभुः सेवाभेदानुरोधेन फलभेदप्रदो नाऽप्रभुस्तथेश्वरोऽपि कर्माशयापेक्षः फलं जनयतीति 'अनीश्वरः' इति न युज्यते वक्तुम् । भाष्यकारः कारुण्यप्रेरितस्य प्रवृत्तिमाह । तन्निमित्तायामपि प्रवृत्तौ न वात्तिककारीयं दूषणम'संसजेत शुभमेवैकमनुकम्पाप्रयोजितः' [ श्लो० वा० ५-स० ५० श्लो० ५२ ] इत्येवमादि, यतः कर्माशयानां कुशलाऽकुशलरूपारणां फलोपभोगं विना न क्षय इति भगवानवगच्छंस्तदुपभोगाय प्राणिसगं करोति । उपभोगः कर्मफलस्य शरीरादिकृतः, कस्यचित्तु अशुभस्य कर्मणः प्रायश्चित्तात् प्रक्षयः । तत्रापि स्वल्पेन दुःखोपभोगेन दीर्घकालदुःखप्रदं कर्म क्षीयते, न तु फलमदत्त्वा कर्मक्षयः । येषामपि मतं सम्यग्ज्ञानाद् विपर्यासनिवृत्तौ तज्जन्यक्लेशक्षये कर्माशयानां सद्भावेऽपि सहकार्यभावान्न शरीराधा [ भगवान की प्रवृत्ति करुणामूलक ! ] अन्य विद्वान कहते हैं-भगवान की प्रवृत्ति करुणामूलक है । ( निरुपाधिक परदुःखभंजन की इच्छा को करुणा कहते हैं ) । प्रश्न:-करुणामूलक प्रवृत्ति से केवल सुखी प्राणियों की ही सृष्टि होगी, दुःखसृष्टि क्यों ? उत्तर:-दुःखसृष्टि का दोष नहीं है, क्योंकि कर्ता यदि निरपेक्ष ( सर्वथा स्वतन्त्र ) हो तब यह दोष सावकाश है, जब ईश्वर भी जीव के अदृष्ट को सापेक्ष ( पराधीन ) है तब एक प्रकार की सृष्टि का सम्भव कैसे होगा ? ! जिस आत्मा का जैसा भी पुण्यात्मक या पापात्मक कर्मसंचय होगा, उसको वैसे ही फलोपभोग संपन्न कराने के लिये उसके साधनभूत वैसे ही शरीरादि की रचना पुण्य पाप को सापेक्ष रह कर ईश्वर करता है। कुछ विद्वान् यहाँ कहते हैं कि-पुण्य पाप की सापेक्षता से ऐश्वर्य का कोई व्याघात नहीं है। जैसे स्फटिक को उपाधि के वर्ण से उपरक्त करने में सूर्यप्रकाश को स्फटिक की अपेक्षा रहती ही है । अथवा इन्द्रिय के अधिष्ठाता को ज्ञानादि में बाह्यान्तर करण (इन्द्रिय) की अपेक्षा रहती ही है, इन कार्यों में सापेक्षता होने पर भी जैसे जीव व ऐश्कार्य रहता है उसी प्रकार अदृष्ट की सापेक्षता होने पर भी भगवान् के ऐश्वर्य में व्याधात नहीं है। दूसरे विद्वान् कहते हैं जैसे नृपादि स्वामी भिन्न भिन्न प्रकार के सेवा कार्य को लक्ष्य में रखकर अपने सेवकों को भिन्न भिन्न फल प्रदान करता है, इससे उसके स्वामित्व में कोई क्षति नहीं आती; उसी प्रकार ईश्वर भी कर्मसंचय की अपेक्षा से फलोत्पत्ति करता हो तो इससे उसको अनीश्वर कहना योग्य नहीं है। [ केवल सुखत्मक सर्गोत्पत्ति न करने में हेतु] भाष्यकार ने भी करुणाप्रेरित हो कर ईश्वर की प्रवृत्ति होने का कहा है। प्रवृत्ति को करुणामूलक मानने पर भी तन्त्रवात्तिककर्ता कुमारील भट्ट ने जो यह दोष दिया है-'यदि करुणा से प्रेरित होकर प्रवृत्ति करने का मानेंगे तो सभी को एकमात्र सुखी ही बनाता'- इस दूषण को अवकाश नहीं है। कारण, शुभाशुभ कर्मराशि का फलोपभोग के विना नाश अशक्य है। यद्यपि किसी अशुभ कर्म का प्रायश्चित से भी विनाश होता है, किन्तु वहां भी दीर्घकाल तक दुख देने की शक्तिवाला कर्म अत्यल्प दुःखोपभोग से क्षीण होता है यही माना गया है, अत: फल दिये विना किसी भी कर्म का विनाश नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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