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________________ प्रथम खण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद पकत्व-"। इसका विरुद्ध धर्म है-'कारणान्तर निरपेक्ष-ज्ञानान्तर निरपेक्ष स्वकार्यरूप धर्म व्यवस्थापकत्व का अभाव', इसका व्याप्त है 'प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयकत्व', अर्थात् कारणान्तर-ज्ञानान्तर की प्रतीक्षापूर्वक व्यवस्थापकत्व । इस विरुद्ध व्याप्त धर्म की प्रस्तुत में होने वाली उपलब्धि=प्रतीति हो यहाँ विरुद्धव्याप्तोपलब्धि है । इसका साध्य है प्रामाण्य में परसापेक्षत्व । तात्पर्य, प्रमाणज्ञान का कार्य है वस्तु का यथार्थ परिच्छेद-प्रकाश । यह कार्य प्रमाणज्ञानोत्पादक कारणमात्र से नहीं होता किन्तु संवादिज्ञान के उदयरूप कारणान्तर से होता है । स्वतः प्रामाण्यवादियों के अनुसार अर्थ का यथार्थ प्रकाशरूप कार्य कारणान्तर की अपेक्षा नहीं रखता इस लिये या ह कार्य स्वत: है। इस कार्य का स्वतोभाव यह स्वत:प्रामाण्यवादियों का साध्य है। इससे विरुद्ध है परतोभाव पर से कार्योत्पत्ति। इससे व्याप्त धर्म है अर्थ के यथार्थ प्रकाश के लिये अन्य कारणों की अपेक्षा। इस विरुद्ध व्याप्त धर्म की उपलब्धि है विरुद्धव्याप्तोपलब्धि । इससे स्वतःप्रामाण्यवादी का साध्य धर्म बाधित हो जाता है। [३] इसी प्रकार प्रामाण्य, ज्ञप्ति में भी सापेक्ष होने से परत: है। अर्थात् , प्रामाण्य अपने निर्णय के लिए भी अन्य कारणों की अपेक्षा करता है इस लिये परतः है। इस विषय में अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-जिन पदार्थों का स्वरूप संशय या भ्रम से ग्रस्त होता है उनका यथावस्थित स्वरूप अन्य कारणों के द्वारा निश्चित होता है। इस विषय में स्थाणु आदि दृष्टान्त है । दूर से देखने पर स्थाणु के विषय में 'यह स्थाणु है या पुरुष है' इस प्रकार का संशय हो जाता है अथवा किसी को 'यह पुरुष है' ऐसा भ्रम ही हो जाता है। ऐसी संशयग्रस्त या भ्रमापन्न दशा में स्थाणु के यथार्थ स्वरूप का निश्चय स्थाणु के स्वरूपमात्र से नहीं होता किन्तु स्थाणु के निकट गमन एवं निपुण निरीक्षण से होता है। इसी प्रकार कुछ ज्ञानों का प्रामाण्य भी संदेहग्रस्त या भ्रमापन्न रहता है। यहां स्वभावहेतु साधक है, कुछ ज्ञानों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे संशय-भ्रम ग्रस्त होते हैं । यह स्वभाव, ज्ञान के प्रामाण्य की ज्ञप्ति परतः होने में साधक है इस लिए स्वभाव हेतु रूप हुआ। स्वतःप्रामाण्यवादियों के अनुसार प्रमाणज्ञान का प्रामाण्य अपनी उत्पत्ति में, अपने कार्य में व अपनी ज्ञप्ति में स्वत: है, अर्थात् इन तीनों के लिये अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं रखता। जो ज्ञान के उत्पादक हैं, उन्हीं से ये तोन-ज्ञाननिष्ठ प्रामाण्य की उत्पत्ति, यथावस्थित पदार्थबोध रूप कार्य व प्रामाण्य की ज्ञप्ति उत्पन्न हो जाती है, तीनों में अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं होती। (१) उत्पत्ति में,-प्रमाणज्ञान के उत्पादक कारणों से जैसे वह प्रमाण ज्ञान उत्पन्न होता है वैसे उसमें प्रामाण्य भी उत्पन्न हो जाता है. (२) कार्य में, ज्ञान जैसे अपने स्वरूप से ही पदार्थपरिच्छेदरूप कार्य करता है वैसे प्रामाण्य उसी ज्ञान स्वरूप से ही यथार्थ पदार्थपरिच्छेदरूप कार्य को करता है, किन्त इस कार्यजनन में अन्य कारण की अपेक्षा नहीं करता। (३) ज्ञप्ति में जैसे ज्ञान स्वत:प्रकाश्य मत में ज्ञान की ज्ञप्ति स्वतः होती है किन्तु इसके लिये कोई दूसरा ज्ञान करना होता नहींउदाहरणार्थ, घटज्ञान से घट का स्वरूप प्रकाशित हुआ उसी समय घटज्ञान का स्वरूप भी प्रकाशित हआ किन्तु घटज्ञान को जानने के लिये कोई नया ज्ञान लाना नहीं पड़ता, अर्थात घट ज्ञान से भिन्न अन्य कारण की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती। अनुभव ऐसा ही है कि जिस समय घटज्ञान-'अयं घट:' बोध होता है उसो समय 'घटमहं जानामि-घटं पश्यामि-घटज्ञानवान अहं' ऐसा घटज्ञान का भी बोध होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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