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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः अथ देशैकत्वादेकत्वम् । ननु देशस्यापि स्व-परदृष्टस्यानन्तरोक्तन्यायाद् नैकता युक्ता । तस्माद् ग्राहकाकारक्त प्रतिपुरुषमुद्धासमानं नीलादिकमपि भिन्नमेव । तच्चैककालोपलम्भाद् ग्राहक वत् स्वप्रकाशम् । अथ ग्राहकाकारश्चिद्रूपत्वाद् वेदको नीलाकारस्तु जडत्वाद् ग्राह्यः । अत्रोच्यतेकिमिदं बोधस्य चिद्रूपत्वम् ? यद्यपरोक्ष स्वरूपं, नीलादेरपि तहि तदस्तीति न जडता। प्रथ नीलादेरपरोक्षस्वरूपमन्यस्माद् भवतीति ग्राह्यम् । ननु बोधस्यापि स्वस्वरूपमिन्द्रियादेर्भवतीति ग्राह्य स्यात् । अथ यद् इन्द्रियादिकार्य न तद् वेद्यम , नीलादिकमपि हि नयनादिकार्यमस्तु न तु ग्राह्यम् । __ अथ बोधो बोधस्वरूपतया नित्यो नीलादिकस्तु प्रकाश्यरूपतयाऽनित्य इति ग्राह्यः । तदप्यसव, स्तम्भादेनयनादिबलादुदेति रूपमपरोक्षत्वम् , तदनित्यः स्तम्भादितु, ग्राहस्तु कथम् ? न हि यद् यस्मादुत्पद्यते तत्तस्य वेद्यम , अतिप्रसंगात । तस्मादपरोक्षस्वरूपा: स्तम्भादयः स्वप्रकाशाः बोधस्तु नित्योऽनित्यो वा तत्काले केवलमुद्धाति, न तु वेदकः, द्वयोरपि परस्परं ग्राह्य-ग्राहकतापत्तः । अथ नीलोन्मुखस्वाद बोधो ग्राहकः । किमिदं तन्मुखत्वं नाम बोधस्य ? यदि नीलकाले सत्ता सा नीलस्यापि तत्काले समस्तीति नीलमपि बोधस्य वेदकं स्यात् । अथान्यदुन्मुखत्वं तत् , तहि स्व लिये अगर सन्तान भेद को स्वत: यानी अपने स्वरूप की भिन्नता से प्रयुक्त ही मान लेंगे तो सुखादिभेद को सन्तानभेद प्रयुक्त मानने की जरूर नही रहेगी, वह भी स्वतः ही यानी स्वरूपभेद से ही माना जायेगा। यदि स्वरूपभेद से भेद नहीं मानेगे तो कहीं भी भेदसिद्धि न हो सकेगी। यह ठीक नहीं है कि अन्य दो वस्तु के भेद से अन्यत्र दो वस्तु का भेद माना जाय, क्योंकि यहां ऐसा अतिप्रसंग होगा कि घट-पट के भेद से शकट-लकुट का भेद होने लगेगा। उपरांत, स्वदर्शन में और परदर्शन में भासमान नीलादि भी प्रतिभासभेद से अनायास भिन्न हो जायेगे तो स्वदृष्ट-पर हष्ट नीलादि में ऐक्यसिद्धि दूर है। [स्व-पर दृष्ट नीलादि में ऐक्य की असिद्धि ] यदि, अपने को जहाँ नीलादि दिखता है वहाँ ही दूसरे को भी दिखता है इस प्रकार दोनों का देश एक ही होने से स्वदृष्ट परदृष्ट नीलादि में एकत्व सिद्ध किया जाय तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वोक्तरीति से स्वदृष्ट देश और परदृष्ट देश का प्रतिभास भिन्न भिन्न होने से देशभेद ही सिद्ध होता है, तो देश की एकता मानना अयक्त है। [ अथवा सहशदर्शन से ही वहाँ देश ऐक्य की बुद्धि होती है, वास्तव में वहाँ देश-ऐक्य असिद्ध है | इस से यही फलित होता है कि भिन्न भिन्न व्यक्तिओं का ग्राहक आकार यानी विज्ञान जैसे भिन्न भिन्न होता है वैसे ही ग्राह्य नीलादि भी भिन्न भिन्न ही है और यह नीलादि भी विज्ञानवत् स्वप्रकाश ही है क्योंकि विज्ञान और नीलादि का एक ही काल में उपलम्भ होता है। [ नीलाकार में प्राह्यता की अनुपपत्ति ] यदि ग्राहकाकार विज्ञान चित्स्वरूप होने से उसको वेदक माना जाय और नीलाकार की ग्राह्यता जडताप्रयुक्त मानी जाय तो यहाँ प्रश्न है कि विज्ञान चि स्वरूप है' इस का क्या मतलब ? 'अपना स्वरूप अपरोक्ष होना यह चित्स्वरूपता' मानेंगे तो नीलादि का भी स्वरूप अपरोक्ष ही है अत: उसकी जडता अयुक्तिक हुयी । यदि नीलादि की अपरोक्षता परावलम्बी (विज्ञान पर आधारित) होने से उसे ग्राह्य, केवल ग्राह्य ही माना जाय तो विज्ञान को भी ग्राह्य ही कहना होगा क्योंकि विज्ञान का स्वरूप भी इन्द्रियादि पर ही अवलम्बित होता है । यदि-'जो इन्द्रिय का कार्य हो वह वेद्य (ग्राह्य) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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