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________________ २१२ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अनुमानजनितज्ञानेन तु सर्ववित्त्वे न धर्मज्ञत्वम् . धर्मादेरतीन्द्रियत्वेन तज्जापलिंगत्वेनाऽभ्युपगम्यमानस्यार्थस्य तेन सह संबन्धासिद्धेः, असिद्ध सम्बन्धस्य चाऽज्ञापकत्वान्न ततो धर्माद्यनुमानम्इत्यनुमानजनितं ज्ञानं न सकलधर्मादिपदार्थाऽऽवेदकम । कि च, तथाभूतपदार्थज्ञानेन यदि सर्वविदभ्युपगम्यते तदास्मदादीनामपि सववित्त्वमनिवारितप्रसरम 'भावाभावोभयरूपं जगत् , प्रमेयत्वात्' इत्यनुमानस्यास्मदादीनामपि भावात् । अस्पष्टं चानुमानमिति तज्जनितस्याप्यवैशद्यसंभवान्न तज्ज्ञानवान् सर्वज्ञो युक्तः। अथानुमानज्ञानं प्रागविशदमपि तदेवाऽशेषपदार्थविषयं पुनः पुनर्भाव्यमानं भावनाप्रकर्षपर्यन्ते योगिज्ञानरूपतामासादयद् वैशद्यभाग् भवति, दृष्टं चाभ्यासबलाद ज्ञानस्यानक्षजस्यापि काम-शोकभयोन्माद-चौरस्वप्नाधुपप्लुतस्य वैशद्यम् । नन्वेवं तज्ज्ञानवदतीन्द्रियार्थविद्विज्ञानस्याप्युपप्लुतत्वं स्यादिति तज्ज्ञानवतः कामाधुपप्लुतपुरुषवद् विपर्यस्तत्वम् । आगम के बिना सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होगा और सर्वज्ञ के विना प्रमाणभूत आगम निष्पन्न नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्षज्ञान स्पप्टानभवरूप होता है जब कि शब्दजन्यज्ञान अस्पष्ट होता है, अतः शब्दजनितज्ञानवान् पुरुष सकलार्थप्रत्यक्षकारी नहीं माना जा सकता। फलित यह हुआ कि शब्द जनित प्रत्यक्षज्ञानवान् कोई धर्मवेत्ता का सम्भव नहीं है किन्तु प्रेरणा (=विधिवाक्य ) जनित ज्ञानवान ही धर्मवेत्ता है । अत एव शाबरभाष्य में कहा गया है कि-"प्रेरणा हि भूत, वर्तमान, भविष्यत् कालीन सर्वपदार्थों के बोधन में समर्थ है, और कोई इन्द्रियादि नहीं । सारांश, तृतीय पक्ष भी अयुक्त है । [ अनुमान से सर्वज्ञता प्राप्ति का असंभव ] चौथे विकल्प में, यदि अनुमानज य सर्व दार्थज्ञान द्वारा सर्वज्ञता मानी जाय तो भो इससे धर्मज्ञता सिद्ध नहीं हो सकती। कारण, धर्मादि पदार्थ अतीन्द्रिय हैं, अतः उन अतीन्द्रियपदार्थों के ज्ञापक जिस पदार्थ को आप हेतु बनायेंगे उसका अपने साध्यभूत अतीन्द्रिय पदार्थों के साथ सम्बन्ध ही सिद्ध नहीं हो सकता । असिद्ध संबंध वाला हेतू साध्य का ज्ञापक न हो सकने से धर्मादि का अनुमान नहीं किया जा सकता। अत: चौथे पक्ष में अनुमानजन्यज्ञान सकल धर्मादि पदार्थ का ज्ञापक नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि अनुमानजन्यज्ञान से सर्वज्ञता मानी जाय तो हम आदि में भी सर्वज्ञता की अतिव्याप्ति का निवारण अशक्य होगा, क्योंकि "जगत भावाभावोभय स्वरूप है क्योंकि प्रमेय है" इस अनुमान से प्रमेयत्वहेतुक भावाभावात्मक अखिल जगत् का अनुमान ज्ञान सभी को हो सकता है। तीसरी बात यह है कि अनुमान स्पष्ट नहीं किन्तु अस्पष्ट होता है अतः तज्जन्यज्ञान में विशदता यानी सर्वविशेषग्राहकता का संभव न होने से अनुमानजन्यज्ञानवान पुरुष कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। [सर्वज्ञ ज्ञान में विपर्यास की आपत्ति ] यदि यह तर्क किया जाय कि-प्रारम्भ में तो अनुमानज्ञान अविशद ही होता है किन्तु अखिलपदार्थसंबंधी वही अनुमान पुनः पुनः जब भावित किया जाता है तब भावना चरमोत्कर्ष को प्राप्त होने से वही अनुमानज्ञान योगिज्ञानमय बन जाता है, उस समय अति विशद बन जाता है । यह कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है क्योंकि यह देखा जाता है कि ज्ञान इन्द्रिय जन्य यद्यपि न होने पर भी अभ्यास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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