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________________ प्रथमखण्ड का ० १ - शब्दनित्यत्व ० निरवयवत्वादेकत्रोत्सारितावरणः सर्वत्र पनीतावरणः इति नायं दोषस्तहि निविभागत्वादेव कत्रापनीतावरणः सर्वत्र तथेति मनागपि श्रवणं न स्यात् । सर्वत्र सर्वात्मना वर्णस्य परिसमाप्तत्वात् सामस्त्येन श्रवणाभ्युपगमे वर्णस्याव्यापकत्वं अनेकत्वं च दुनिवारम् । यदि चैकत्राऽभिव्यक्तो निर्विभागत्वेन सर्वत्राभिव्यक्तस्तदा सर्वदेशावस्थितस्तस्य श्रवणं स्यात् । यदप्युच्यते यथैवोत्पद्यमानोऽयमुत्पत्तिवादिनां पक्षे दिगादीनामविभागाद विभक्त दिगादिसंबंधित्वेन स्वरूपेणाऽसर्वगतोऽपि सर्वान् प्रति भवन्नपि न सर्वैरवगम्यते, किन्तु यच्छरीरसमीपवर्ती वर्ण उत्पनवास गृह्यते तथाऽस्मत्पक्षेऽपि स्वतः सर्वगतोऽपि वर्णो न सर्वेद् रथैरवगम्यते किन्तु यच्छरीरसमीपस्थोऽभिव्यक्तस्तैरेवेति व्यंजकध्वनिसंनिधानाऽसंनिधानकृतं वर्णस्य श्रवणम् प्रश्रवणं च युक्तम् । एतदेवाह - [ श्लो० वा० ६ / ८४-८५ ] यथैवोत्पद्यमानोऽयं न सर्वैरवगम्यते ॥ दिग्देशादिविभागेन सर्वान् प्रति भवन्नपि । तथैव यत्समीपस्थैर्नादैः स्याद्यस्य संस्कृतिः । तैरेव गृह्यते शब्दो न दूरस्थैः कथंचन । इति तदपि प्रलापमात्रम् - १५१ [ अभिव्यक्ति पक्ष में खंडित शब्द प्रतीति आपत्ति ] अभिव्यक्ति पक्ष में खंडश: बोध की भी आपत्ति होगी जैसे- कोष्ठीय वायु वेग पूर्वक जहाँ तक प्रसरेगा उतना वर्ण विभाग ही अनावृत होगा तो श्रवण भी उतने विभाग का ही होगा, संपूर्ण वर्ण का श्रवण नहीं होगा, तो खण्डित वर्ण की ही प्रतीति होगी, अखण्ड की नहीं । अभिव्यक्तिवादी:- वर्ण यह निरंश वस्तु होने से किसी एक भाग में आवरण के हठ जाने पर समस्त वर्ण ऊपर से आवरण हट जायेगा इस लिये खण्डित प्रतीति का दोष नहीं है । उत्तरपक्षी:- ओह ! तब तो किसी एक भाग में आवरण के रह जाने पर समस्त वर्ण ऊपर आवरण रह जाएगा चूंकि वर्ण स्वयं निरंश है, तो लेशमात्र भी वर्ण का श्रवण न होगा । यदि यह मानेंगे कि- 'वर्ण सर्वत्र संपूर्णरूप से परिसमाप्त यानी अभिव्याप्त है - कोई खूणा ऐसा नहीं है जहाँ वह संपूर्णतया अवस्थित न हो। इस लिये जिस जिस भाग में आवरण दूर होगा वहाँ संपूर्ण ही वर्ण की उपलब्धि होगी । ' - तो इसमें वर्ण में अनेकता की आपत्ति का निवारण न होगा क्योंकि कोणे में एक एक अलग संपूर्ण वर्ण की तब उपलब्धि होगी वह वर्ण को एक मानने पर अशक्य है । यह भी नहीं कह सकते कि - "आवरण का अपसारण किसी एक में होने पर भी उस भाग में अभिव्यक्त वर्ण संपूणरूप से सर्वत्र ही अभिव्यक्त हो जाता है, आंशिक रूप से किसी एक भाग में नहीं क्योंकि वर्ण का कोई अंश ही नहीं है ।" - क्योंकि ऐसा मानने पर तो बोलने वाला कहीं भी बोलेगा तो पूरे ब्रह्माus में रहे हुये सर्व लोगों को वह सुनाई देने की आपत्ति आयेगी । यह भी जो आप कहना चाहते है वह सब प्रलाप तुल्य है - Jain Educationa International [ उत्पत्ति - अभिव्यक्ति पक्ष में समानता का उद्भावन-शंका ] "उत्पत्तिवादीओं के पक्ष 'शब्द उत्पन्न होता है तो वह यद्यपि स्वरूप से सर्वगत नहीं होता किन्तु जिन दिशाओं में वह उत्पन्न हुआ है उन दिशाओं का कोई विभाग - अंश नहीं है, दिशा सर्वत्र व्यापक हैं, तो अविभक्त दिशादिसंबंधी होने के कारण वह सर्व दिशाओं में रहे हुए श्रोताओं के लिये For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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