SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 40 :: तत्त्वार्थसार 9. क्षायिक दर्शन • दर्शनावरणकर्म के क्षय से जो दर्शन प्रकट होता है उसे क्षायिक दर्शन कहते हैं । इसी का नाम केवल दर्शन है । यह केवल ज्ञान का सहभावी है अर्थात् केवलज्ञान के साथ उत्पन्न होता है तथा उसी के समान तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में और उसके बाद सिद्धपर्याय में अनन्तकाल तक रहता है। क्षायिक वीर्य आदि पाँच लब्धियाँ भी तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में तथा उसके बाद सिद्ध अवस्था में भी रहती हैं । क्षायिक भाव के उक्त नौ भेद, नौ लब्धियों के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । औदयिक भावों के भेद चतस्त्रो गतयो लेश्याः षट् कषाय-चतुष्टयम् । वेदा मिथ्यात्वमज्ञानमसिद्धोऽसंयमस्तथा ॥ इत्यादयिक - भावस्य स्युर्भेदा एकविंशतिः ॥ 7 ॥ ( षट्पदी) अर्थ-चार गतियाँ : 1. नरक, 2 तिर्यंच, 3. मनुष्य, 4. देव। छह लेश्याएँ : 1. कृष्ण, 2. नील, 3. कापोत, 4. पीत, 5. पद्म, 6. शुक्ल । चार कषाय- 1. क्रोध, 2. मान, 3. माया, 4 लोभ । वेद तीन'1. स्त्रीवेद, 2. पुरुषवेद, 3. नपुंसकवेद तथा मिथ्यादर्शन, अज्ञानभाव, असिद्धता और असंयम - इस प्रकार ये इक्कीस औदयिक भाव के भेद होते हैं । भावार्थ - गति आदिक का स्वरूप इस प्रकार है गति - गतिनामकर्म के उदय से जीव की जो अवस्था विशेष होती है उसे गति कहते हैं । इसके चार भेद हैं- 1. नरकगति, 2. तिर्यंचगति, 3. मनुष्यगति और 4. देवगति । लेश्या - कषाय के उदय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । इसके छह भेद हैं1. कृष्ण, 2. नील, 3. कापोत, 4. पीत, 5. पद्म और 6. शुक्ल । इन लेश्यावालों के चिह्न इस प्रकार हैंकृष्णलेश्या - तीव्र कोध करनेवाला हो, किसी से बुराई होने परे दीर्घकाल तक वैर न छोड़े, खोटा बकने का जिसका स्वभाव हो, धर्म एवं दया से रहित हो, स्वभाव का दुष्ट हो तथा कषाय की तीव्रता के कारण किसी के वश में न आता हो, वह कृष्णलेश्या का धारक है। नीललेश्या - जो मन्द हो, निर्बुद्धि हो, विवेक से रहित हो, विषयों की तृष्णा अधिक रखता हो, मानी हो, मायावी हो, आलसी हो, चाहे जिसकी बातों में आ जाता हो, निद्रालु हो, दूसरे को ठगने में निपुण हो और धन-धान्य में अधिक लालसा रखता हो वह नीललेश्या का धारक है। Jain Educationa International 1. मूल श्लोक में वेदों की संख्या नहीं दी गयी है। इसका कारण यह है कि उक्त छन्द में अधिक अक्षर जोड़ने के लिए स्थान नहीं था। परन्तु बहुवचन का प्रयोग करने से और आगे इक्कीस की समुदाय संख्या निश्चित कर देने से वेद की तीन संख्या समझ में सुगमता से आ सकती है। क्योंकि तीन से कम में बहुवचन नहीं होगा और तीन से अधिक मानें तो 21 की संख्या नहीं रहेगी। नोट - क्षायोपशमिक भावों में भी तीन अज्ञान गिनाये हैं और औदयिक भावों में भी एक औदयिक अज्ञान गिनाया है । यहाँ अज्ञान को ज्ञानावरण उदयजन्य होने से अज्ञान रूप समझना चाहिए और क्षायोपशमिक अज्ञान का अर्थ मिथ्या ज्ञान किया जाता है असंयम का अर्थ मिथ्या संयम करना चाहिए, क्योंकि कषाय का उदय संयम का नाश न करके उसे केवल विपरीत ही करता है । - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy