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________________ सातवाँ अधिकार :: 291 अर्थ-जो वाचना द्वारा अध्ययन किया हो अथवा कर रहा हो उसके शब्द में, अर्थ में अथवा दोनों में संशय दूर करने के लिए अथवा उसका दृढ़ निश्चय होने के लिए, दूसरों को भी ज्ञान-लाभ हो इस भाव से जो गुरु से अथवा सहपाठी आदि से पूछना-विचारना किया जाता है, जिन भगवान ने उसे पृच्छना कहा है। इसी को पढ़ाना भी कह सकते हैं। इससे प्रशस्त अध्यवसाय होता है। आम्नाय स्वाध्याय का स्वरूप आम्नायः कथ्यते घोषो विशुद्धं परिवतर्नम्। अर्थ-पाठ कंठस्थ करने के लिए बार-बार शुद्ध उच्चारण करना अथवा आवृत्ति करना-यह आम्नाय कहलाता है। 'पाठ करना'-इस शब्द का यही अर्थ है। इससे तप की वृद्धि होती है। धर्मदेशना स्वाध्याय का स्वरूप कथाधर्माद्यनुष्ठानं विज्ञेया धर्मदेशना॥ 19॥ अर्थ-पूर्व पुरुषों के चरित्र अथवा धर्मादि विषयों का स्वरूप श्रोताओं को सुनाना सो धर्मदेशना है। धर्मोपदेश भी इसका दूसरा नाम है। इससे अतिचार विशुद्धि होती है। अनुप्रेक्षा स्वाध्याय का स्वरूप साधोरधिगतार्थस्य योऽभ्यासो मनसा भवेत्। अनुप्रेक्षेति निर्दिष्टः स्वाध्यायः स जिनेशिभिः ॥ 20॥ अर्थ-जो तत्त्वज्ञान हो चुका है उसका मन में बार-बार चिन्तन करना-इसको जिनेन्द्र ने स्वाध्याय कहा है। संवर व निर्जरा को मुख्यता से साधु ही कर सकते हैं, इसलिए इस अधिकार में अनेक बार साधु को अधिकारी बताया है। इसका अर्थ प्रमुखता ही लेना चाहिए, क्योंकि गृहस्थ उक्त संवर, निर्जरा का उत्कृष्ट अधिकारी नहीं हो सकता है; तो भी एक देश यथासाध्य संवर, निर्जरा को वह भी करता ही है। इससे संवेग जाग्रत होता है। अनुप्रेक्षा नाम का स्वाध्याय पढ़ने के अन्त में चाहे जब तक हो सकता है और ज्ञान-वृद्धि का यही अन्तिम उपाय है, इसलिए इसे अन्त में गिनाया है। तत्त्वार्थ सूत्र कर्ता ने धर्मोपदेश को अन्त में गिनाया है। इसका यह मतलब है कि प्राप्त हुए श्रुतज्ञान का उपयोग सर्वसामान्य को कराना–यही श्रुतज्ञान का प्रयोजन है। वह धर्मोपदेश द्वारा ही हो सकता है, परन्तु उन्होंने भी पढ़ने और पढ़ाने के बाद में इस अनुप्रेक्षा को गिनाया है। इससे यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि पठन-पाठन के अथवा वाचन-पृच्छना के अन्त में ही इसका उपयोग होता है और उन दोनों से यह अधिक दृढ़ता का कारण है। इस प्रकार स्वाध्याय तप के पाँच स्वरूपों का वर्णन' हुआ। 1. जो श्रवणमनननिदिध्यासन ऐसे तीन भेद ज्ञानाभ्यास के किये जाते हैं वे वाचना-पृच्छना अनुप्रेक्षा में गर्भित हो सकते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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