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________________ 232 :: तत्त्वार्थसार हैं। एक समयगत एक जीव के परिणामों को देखें तब तो मिथ्यात्वादि किसी एक के सिवाय दूसरा परिणाम रह ही नहीं सकता है, परन्तु ऊपर की विषय व्याप्ति कारणसद्भाव रहने से या योग्यता रहने से मानी जाती है। मिथ्यात्व अविरति व प्रमाद के साथ कषाय का अविनाभावी सर्वदेशीय सम्बन्ध नहीं रहता, इसीलिए अविरति आदि कारणों से कषाय को जुदा कारण मानना पड़ता है । प्रमाद छठे गुणस्थान तक रहता है, परन्तु कषाय' दसवें तक रहता है, और कषाय' कारण है, अविरति कार्य है इसमें भी परस्पर भेद मानना पड़ता है। बन्ध का यह चौथा कारण हुआ । योग का वर्णन - चत्वारो हि मनोयोगा वाग्योगानां चतुष्टयम् । पञ्च द्वौ च वपुर्योगा योगा पञ्चदशोदिताः ॥ 12 ॥ अर्थ- - चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग ये पन्द्रह योग हैं। इनका विशेष वर्णन जीवतत्त्व के वर्णन में हो चुका है। योग मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग केवलीपर्यन्त रहते हैं। योगों का भी मिथ्यात्वादि बन्ध कारणों के साथ अनिश्चित सम्बन्ध है, इसीलिए मिथ्यादृष्टि, प्रमादी व कषाययुक्त जीव के साथ भी योग रहता है और मिथ्यात्वादि कारण नष्ट हो जाने पर भी बना रहता है । इस प्रकार बन्ध के कारणों का वर्णन हुआ। बन्ध का स्वरूप यज्जीवः सकषायत्वात् कर्मणो योग्यपुलान् । आदत्ते सर्वतो योगात् स बन्धः कथितो जिनैः ॥ 13 ॥ अर्थ- - सकषाय बनने पर जीव कर्मयोग्य पुद्गलों को सब तरफ से ग्रहण करता है, यही बन्ध है। कोई भी सकषायी जीवप्रदेश, किसी समय भी बन्ध होने से बाकी नहीं रहता है । सदा सर्व प्रदेशों में बन्ध होता ही रहता है । कर्मपिंडों को ग्रहण करने का हेतु योग है और कर्मरूप परिणमाने का हेतु कषाय है । दूसरे शब्दों में, पूर्वबद्ध कर्म के उदय से जीव में कषाय प्रकट होता है । उसी कषाय से जीव में आगामी कर्म बँधते जाते हैं, इसलिए जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि का है तभी तो नवीन कर्म बँधते रहते हैं । कर्म, आत्मा का गुण नहीं है न कर्मात्मगुणोऽमूर्तेः तस्य बन्धाप्रसिद्धित: । अनुग्रहोपघातौ हि नामूर्तेः कर्तुमर्हति ॥ 14 ॥ अर्थ - कर्म आत्मा का गुण नहीं है। यदि गुण हो तो अमूर्त आत्मा का उससे बन्धन होगा ऐसा Jain Educationa International 1. कषायाविरत्योरभेद इति चेन्न कार्यकारण - भेदोपपत्तेः । कारणभूता हि कषायाः कार्यात्मिकाया हिंसाद्याविरतेरर्थान्तरभूताः । रा.वा., 8/1, वा. 33 2. कषायः कषणान्मतः । इति । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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