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________________ 220 :: तत्त्वार्थसार शंका-देवायु कर्म का आस्रव सातवें तक होता है। यदि छठे तक होता तो प्रमाद उसका कारण हो सकता था, परन्तु सातवें में प्रमाद रहता नहीं। यदि प्रमाद से आगे सातवें में रहनेवाला कषाय उसका कारण होता तो कषाय का सद्भाव दसवें गुणस्थान तक रहता है, इसलिए देवायु का आस्रव भी दसवें तक होना चाहिए था; परन्तु दसवें तक इसका बन्ध होता नहीं है, इसलिए देवायु का कारण क्या मानना चाहिए? उत्तर-देवायु का कारण है तो प्रमाद ही, परन्तु प्रमाद का अभाव होने पर भी जो प्रमाद का संस्कार रहता है वह भी उसका' कारण है। संस्कार यदि रहे तो सातवें तक रह सकता है। छठे में जबकि प्रमाद का अभाव होता है तो सातवें से आगे उसका संस्कार भी नहीं रह सकता है, इसीलिए देवायु का आस्रव प्रमादजन्य होने पर भी सातवें तक होता है और सातवें से आगे नहीं होता। संस्कार भी कहीं-कहीं पर अपना काम दिखाता है। देखो, चौदहवें गुणस्थान के प्रारम्भ में योगों तक का निरोध हो जाने से रत्नत्रय की पूर्णता में कुछ कमी नहीं रहती तो भी मोक्ष-प्राप्ति होने का बाधक कारण योग संस्कार बना रहने से मोक्ष-प्राप्ति में थोड़ा-सा विलम्ब हो जाता है, परन्तु निर्मूल संस्कार का टिकाव अधिक देर तक नहीं रह सकता है. इसलिए योगों का संस्कार पाँच ह्रस्व अक्षर उच्चारने में श्रत केवली को जितना समय लगता है उतने समय में नष्ट हो जाता है, वह नष्ट हुआ कि आत्मा मुक्त हो जाता है। यही बात प्रमाद संस्कार की है। प्रमाद का निर्मूल संस्कार भी सातवें से आगे नहीं टिकता। यह सातवें गुणस्थान तक की बात हुई। आठवें से संज्वलन कषाय व योग दो ही कारण रह जाते हैं। उनमें से संज्वलन कषाय भी दसवें के अन्त में नष्ट हो जाता है। उस कषाय के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य ऐसे तीन भेद हैं। ये तीनों भेद भी क्रम से आठवें, नौवें व दसवें तक रहते हैं और इनके निमित्त से होनेवाले कर्म भी वहीं तक रहते हैं। तीव्र कषाय आठवें तक रहती है। उस आठवें के भी प्रारम्भ में कुछ समय तक जो कषाय होती है वह दो प्रकृतियों को बाँध सकती है, निद्रा व प्रचला को, इसके ऊपर इन दोनों का संवरण हो जाता है। इसके ऊपर का कुछ ऐसी कषाय होती है कि पहले से नरम होती है तो भी तीस प्रकृतियों को बाँधता है। वे तीस प्रकृति हैं—(1) देवगति, (2) पंचेन्द्रिय जाति, (3) वैक्रियिक शरीर, (4) आहारक शरीर, (5) तैजस शरीर, (6) कार्मण शरीर, (7) समचतुरस्र संस्थान, (8) वैक्रियिकशरीरांगोपांग, (9) आहारशरीरांगोपांग, (10) वर्ण', (11) गन्ध, (12) रस, (13) स्पर्श, (14) देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, (15) अगुरुलघु, (16) उपघात, (17) परघात, (18) उच्छास, (19) प्रशस्त विहायोगति, (20) त्रस, (21) बादर, (22) पर्याप्त, (23) प्रत्येक शरीर, (24) स्थिर, (25) शुभ, (26) सुभग, (27) सुस्वर, (28) आदेय, (29) निर्माण, (30) तीर्थंकर। ये तीस प्रकृति आठवें गुणस्थान के उपान्त्य समय तक के कषाय द्वारा बँधती रहती हैं और अन्तिम समय में इन तीसों का बन्ध होना रुक जाता है। अन्त समय 1. देवायुबन्धारम्भस्य प्रमाद एव हेतुरप्रमादोऽपि तत्त्वप्रत्यासन्नः । तदूर्ध्वं तस्य संवरः।-रा.वा., वा. 28 2. वर्ण, गन्ध, रस, व स्पर्श इन चार प्रकृतियों के उत्तर भेद बीस हैं। यहाँ अभेद दृष्टि से चार संख्या में ये गर्भित किये हैं, परन्तु एक सौ अडतालीस का जोड़ यदि बन्धनिरोध देखने के लिए दिया जाये तो आठवें की छत्तीस प्रकृति संख्या की जगह 52 बावन संख्या रखनी पड़ेगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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