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________________ 214 :: तत्त्वार्थसार है, जिनवचन श्रवण - चिन्तन-मनन द्वारा अपने निज स्वरूप को जानने-समझने, अनुभवने तथा स्थिरता प्राप्त करने का पुरुषार्थ किया जा सकता है। यह समस्त योग्यता सैनी पंचेन्द्रिय जीव को प्राप्त है । क्षयोपशमादिक जो सम्यक्त्व प्राप्ति की पाँच लब्धियाँ हैं उनका भी यही अर्थ है कि पापकर्मों का यथायोग्य क्षयोपशम हो और पुण्यकर्मों का उदय हो, इसीलिए जो आत्मसुख के वांछक होते हैं वे पापकर्मों को तो चाहते ही नहीं और पुण्यकर्म को करते हुए भी उसे बंध का कारण जानते हैं; आसक्त नहीं होते हैं । यह तो हुई ज्ञानियों की बात, परन्तु अज्ञानी जीव तो पाप से पुण्य को सदा ही अच्छा समझते हैं, क्योंकि, पाप कर्म इष्ट विषयों की प्राप्ति के बाधक होते हैं और पुण्य कर्म साधक होते हैं । संसारी जीव इष्ट विषयों के ही वांछक होते हैं, इसलिए अपने अभीष्ट के साधक पुण्य कर्म को चाहते हैं । अव्रतसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में अन्तर इतना ही रहता है कि मिथ्यादृष्टि पुण्य से संसार सुख की अतितीव्र आसक्ति रखता है और सम्यग्दृष्टि विवशता वश प्रवृत्त होता है। जब तक चारित्रावरण का उदय रहता है तब तक विषयों में और विषयों के कारणों में प्रवृत्ति अवश्य होती है। ग्रन्थकार का भी यह कहना है कि 'व्यवहारावलम्बी जीव पुण्य और पाप में भेद मानते हैं और निश्चयावलम्बी जीव दोनों को एक-सा समझते हैं।' सम्यग्दृष्टि भी व्यवहारावलम्बी तो होते ही हैं और अप्रत्याख्यानावरणादि चारित्रमोह का उदय भी उनके रहता ही है इसलिए वे पाप से बचकर पुण्य कार्यों में अधिक प्रवृत्त होते हैं किन्तु आसक्त नहीं होते हैं। असली निश्चयावलम्बी वे कहे जाते हैं जो कि शुक्लध्यान की श्रेणी पर आरूढ़ हो चुके हों या श्रेणी के सन्मुख हो चुके हों। अव्रती सम्यग्दृष्टि तो उस ध्यान की श्रेणी से बहुत ही नीचे रहता है, इसलिए उसे व्यवहारावलम्बी ही कहना चाहिए । आस्त्रव तत्त्व को जानने का फल - इतीहास्रवतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्त्युपेक्षते । शेषतत्त्वैः समं षड्भिः सहि निर्वाणभागभवेत् ॥ 105 ॥ अर्थ- - इस तरह शेष छह तत्त्वों के साथ जो आस्रव तत्त्व की श्रद्धा करता है, उसे जानता है तथा उपेक्षा करता है, वह निश्चय से निर्वाण को प्राप्त होता है । Jain Educationa International इति श्री अमृतचन्द्राचार्य रचित 'तत्त्वार्थसार' में आस्रव तत्त्व का कथन करनेवाला 'धर्मश्रुतज्ञान' हिन्दी टीका में चतुर्थ अधिकार पूर्ण हुआ। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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