SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 186 :: तत्त्वार्थसार इस तरह प्रमादपूर्वक जो अपने या दूसरों के प्राणों का घात करना है वही हिंसा कर्म है। इन्द्रियश्वासोच्छासादि को द्रव्यप्राण कहते हैं। ये प्राण जीव व शरीर के प्रदेशों से बने हुए होते हैं, इसलिए द्रव्य रूप कहलाते हैं और ये जीव को शरीर में रखने के लिए सहायक हैं, इसलिए प्राण कहलाते हैं। चैतन्य सुखादिक जो जीव की स्वाभाविक अवस्था है उसे भावप्राण कहते हैं। उसे भाव इसलिए कहते हैं कि वह गुण, पर्याय है और प्राण इसलिए है कि वही असली जीव है। द्रव्यप्राणों का घात होने पर चैतन्यसुखादि भावप्राणों का घात होता ही है और द्रव्यप्राणों का घात न होने पर भी भावप्राणों का घात होता है, परन्तु हिंसा को जो पाप कहा है वह इसलिए कि अन्त में उसके द्वारा चैतन्यसुखादि भावप्राणों का घात होता है जो कि किसी भी जीव को इष्ट नहीं हैं। भावप्राणों की ही रक्षा कैसे हो यह समझने के लिए हिंसा के अलावा चोरी आदि पापों को जुदा नहीं गिनाना चाहिए, उन्हें हिंसा में गर्भित करना चाहिए और ऐसा करने पर पाप पाँच नहीं रह सकते, किन्तु एक हिंसा पाप ही मानना पड़ेगा? इस शंका का उत्तर-केवल हिंसा ही वास्तविक पाप है, चोरी आदि हिंसा से जुदी चीजें नहीं हैं। तो भी जो जुदा गिनाते हैं वह इसलिए कि कितने प्रकार हिंसा के हैं, यह बात समझ में आ जाए। यदि चोरी को भी पापों में न गिनाते तो शायद कोई यह समझ लेता कि किसी का वध हो तो हिंसा होगी, नहीं तो नहीं। चोरी से किसी का वध नहीं होता, इसलिए चोरी हिंसा नहीं है और हिंसा के सिवाय कोई पाप नहीं है, इसलिए चोरी पाप नहीं है। यह समझ दूर करने के लिए और साधारणजन भी पापों को समझ लें, इसलिए चोरी आदि अलग-अलग पाप गिनाये हैं। प्रमाद के बिना केवल प्राणघात हो जाने पर भी हिंसा नहीं होती यह समझाने के लिए प्रमाद को कारण कहा है। जैसे एक वैद्य किसी रोगी की सदिच्छा से चीर-फाड़ करता है, परन्तु उसका विपरीत प्रयोग हो जाए तो रोगी का मरना सम्भव है, तो भी वैद्य हिंसा का कर्ता नहीं हो सकता। यदि उसमें कुछ प्रमाद हुआ तो प्रमाद की मात्रानुसार वैद्य को भी हिंसा पाप का भागी कहना ही पड़ेगा। इस प्रकार प्रमाद की ही यहाँ मुख्यता है। 2. असत्य का लक्षण प्रमत्तयोगतो यत्स्यादसदभिभाषणम्। समस्तमपि विज्ञेयमनृतं तत्समासतः॥75॥ अर्थ-सभी पापों का कारण प्रमाद है, इसलिए असत्य वचन में भी उसको कारण दिखाते हैं। प्रमादवश मिथ्या बोलना असत्य वचन है। असत्य शब्द में सत् शब्द है। उसके दो अर्थ होते हैं-एक हितसाधक और दूसरा विद्यमान या मौजूद। विद्यमान अर्थ लेकर चलें तो जो जैसा मौजूद है, वैसा ही उसे कहना सों सत्यवचन कहलाएगा। पहला अर्थ लेकर विचार करें तो हितसाधक वचन को सत्य वचन कहना होगा। फिर चाहे वह जैसा बोला गया है, वैसा उसका वाच्यार्थ हो या न हो। 1. आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसेतत् । अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय॥-पु.सि. श्लो. 42 2. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बन्धो हिंसामेत्तेण्ण समिदस्स ॥ प्र.सार., गा. 217 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy