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________________ (१३३) सें, मन शंका सहु टाली रे ॥ ज०॥ १० ॥ परम क स्यो उपकार तुमें बहु, श्रीगुरु श्रातमराया रे॥ जयवं ता वरतो या भरते, दिन दिन तेज सवाया रे॥ ज० ॥११॥ःसम काल समे गुरुजी तुमें, वचन दीव डा दीधारे ॥ शांतिविजय कहे जेथी हमारा, विषम काम पण सीधां रे ॥ ज०॥ १२ ॥ इति ॥ ११५ ॥ ॥ अथ श्री अचलगछपपति पूज्य जट्टारक श्रीरत्न सागर सूरीश्वरनी गहूंली एकशो ने शोलमी ॥ ॥ सहि मोरी घृतकबोल प्रनु प्रणमीने, पामी सु गुरु पसाय हो ॥ सूधी श्राविका ॥ स०॥ अचलगढ़ पति गायशु, विवेकसागर सूरिराय हो । सू० ॥१॥ ॥सण ॥ पंचमहाव्रत पालता, दशविध यतिधर्मसार हो ॥ सू॥स०॥ संयम सत्तर प्रकारना, नवविध ब्रह्मचर्य धार हो ॥ सू॥ २ ॥ स० ॥ ज्ञान दर्शन गणे प्ररिया, क्रोधादिक परिहार हो ॥ सू॥ स॥ पांच समितियें समिता रहे, चार अनिग्रहना धार हो ॥ सू॥३॥ स॥ पिंमविशुछिने शोधता, इंडि य निरोध करनार हो । सू० ॥ स ॥ त्रण गुप्तियें गु सा रहे, नावना लावता बार हो ॥ सू० ॥४॥ स० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003688
Book TitleGahuli Sangrahanama Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages146
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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