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________________ (१२५) वनारे, जिनमतरंजित जेहनी मींज ॥ वाव्युं सम कित सुरतरु बीज ॥ जक्ति० ॥ ३ ॥ तेषहिज नयरे रे थिविर समोरया रे, पाश संतानीया श्रुत जंकार ॥ साथ पांचरों वे अणगार || जति० ॥ ४ ॥ पुप्फवई चैत्येंरे अवग्रह अवग्रही रे, ते सुणी श्रावक हर्षित थाय ॥ गुरुपद वांदवा संघ तिहां जाय ॥ जति० ॥ ५ ॥ गली करे रे शुभ चित्तें श्राविका रे, गुरु मुख निरखी हर्षित थाय ॥ वांदी बेसे यथोचित वाय ॥ नक्ति ॥ ६ ॥ धर्म सुणीने रे श्रावक वीनवे रे, सं यम फल तपफलथी होय ॥ पूठ्या प्रश्न तिहां एम दोय ॥ जक्ति० ॥ 9 ॥ संयम केरुं रे फल अनाश्रव कां रे, तपफल निर्झरा ते होय ॥ एम कड़े उत्तर मुनि सहु कोय ॥ नक्ति ॥ ७ ॥ वली ते पूढे रे क हो तुमे पूज्यजी रे, तो किम देवगति ते जाय ॥ गुरु कहे सांजलो महानुजाव ॥ चति० ॥ ए॥ सुरपएं हो वेरे सरागसंयमें रे, शेष करमथी ते थाय ॥ श्म सु ही सह निज निज घर जाय ॥ जक्ति० ॥ १० ॥ जग वती अंगें रे जांखे वीरजी रे, एहमां नहीं कोई संदे ह || श्री विजयउदय सूरि मुखथी एह ॥ कहे मुनि राम विजय गुण गेह ॥ जक्ति ॥ ११ ॥ इति० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003688
Book TitleGahuli Sangrahanama Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages146
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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