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________________ (१७५) विध गारवने परिहरे । चार सुख शय्या मांहे रमता रे । चालो० ॥॥प्रमाद तजे नजे व्रतीने, जय टा ले मातने पाले रे ॥ नियाणां न करे साधु जी, दश श्रमण धरम अजुवाले रे ॥ चा ॥३॥ श्रझावंती शु क श्राविका, गुरु आगल नक्ति करती रे ॥ गुरु था गल पूरे गहूंअली, शासन करती बहु उन्नति रे ॥चा ॥४॥ जिनवाणी अनुनवरस जरी, गुरु उत्तम रत्नना मुखथी रे ॥ सुणतां पामे निज आतमा, सुख अनुन वमा रहे एथी रे ॥ चा० ॥५॥ इति ॥ ७ ॥ ॥अथ तपनी नाष्य अव्याशीमी। ' ॥साहेबा महारा अरज करुं बुं कंत, कहे सुणो कामिनी जी॥ साहिबा महारा गुरुजपदेशे हं, सहि यां मांहे ऊपनी जी॥१॥ सा ॥ आशा आपो, मा सखमण तप आदलं जी ॥ सा॥ अवसर पामी, मा नव नव सफलो करूं जी॥२॥ गोरी महारी हाथ न चाले, मन नवि चाले माहरूं जी ॥ गोरी महा री ए तप महोटुं, शरीर खमे नहिं ताहेरुंजी ॥३॥ सा० ॥ ल्योने आदरं, संवत्सरीना खोला पाथरूं जी ॥ सा० ॥ मान मागुं बुं, अंतराय तमें कां करो जी ॥४॥ गोरी अमें आज्ञा पापी, पचरकाण जश् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003688
Book TitleGahuli Sangrahanama Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages146
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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