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________________ ३८ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । " धीमते " एटले सत्वयुक्त एवा, उपर वर्णवेला महादेवप्रते हमेशां उत्तम क्तिएं करीने नमस्कार था; अहीं " नमोनमः " शब्द कहीने जे बे वार नमस्कार कर्यो, ते जक्तिथी यता संभ्रमने सूचवे बे. एव ते पेलाष्टकनुं विवरण समाप्त थयुं. द्वितीयाष्टकं प्रारज्यते उपर कहेला क्रमश्री निश्चित थएला महादेवनी पूजा श्रादिक करवी जोइएं, नेते पूजा स्नानपूर्वक थाय बे, माटे ते स्नानना निरूपणमाटे हवे कडे बे. " द्रव्यतो जावतश्चैव द्विधा स्नानमुदाहृतम् ॥ बाह्यमाध्यात्मिकं चेति, तदन्यैः परिकीर्त्यते ॥ १ ॥ अर्थ-व्यथी ने जावथी, एम बे प्रकारनुं स्नान कहेलुं बे ने तेज स्नान बीजाउंथी " बाह्य " अने " आध्यात्मिक" एवा नामोनुं कहेवाय बे. टीकानो नावार्थ-ते ते पर्यायो प्रते जे प्राप्त थाय, तेने "व्यस्नान" कहीएं; तेथी एटले तेना कारणभूत एवा जलथी, मेलना नाशश्री शरीरने शुद्ध करवारूप जे स्नान करवुं, तेने "व्यस्नान" कहीएं; अथवा अपरमार्थथी जे स्नान करवुं, ते पण "व्यस्नान" कदेवाय, केम के, 5व्य शब्दनो अर्थ प्रधानपशुं पण थाय बे; अथवा अव्यथी एटले जावस्त्राननां कारणपणाथी, केम के, 5व्यनो " कारण " अर्थ पण थाय बे. तथा " जावतः " केतां परिणामथी स्नान करवुं ते; तेमां शुजध्यान कारणभूत बे; तथा तेथी उपयोगनावरूप आत्मा शुद्ध करवानो बे; श्रथवा जावने श्राश्रयीने जो अर्थ करीएं, तो उदय थता जावोनां कारणजूत जे कार्यो, ते रूपी मेलने दूर क रनार जे स्नान, तेने पण " जावस्नान " कहीएं; श्रथवा जावथी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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