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________________ दशमाष्टक. ११३ << ब तां परिणामी एटले परापरपर्याय प्रते गमन करनारा, तथा या " केतां " बाह्य ” एटले आत्माथी जुदा एवा इवा, मूर्ग, दिके करीने बंधाएला, एवा लोकव्यवहारने गोचर जीवो, safari aत्पन्न यएला बंधना सामर्थ्यश्री दुःखसहित एवा या जयंकर संसारमां रहे बे, एम जाणीने तेने त्याग करवानो जे विधि, तथा सर्वथा प्रकारे जे त्याग करवो, तेने “ सद्ज्ञानसंगत ” नामनो वैराग्य कहे वे; अर्थात् श्राप्तना उपदेशथी संसारमां जमता जीवोने, जोइने, जवना कारणरूप एवी ते वादिकने तवामां जे उद्यम करवो, अर्थात् सर्व सावद्यथी विरक्त थवाने यत्न करवो, तथा सर्वथा प्रकारे ते वादिकने जे तजवी, तेने वैराग्यना परमार्थने जाणनारा " सद्ज्ञानसंगत” वेराग्य कहे बे; केम के तेथी यथास्थित वस्तुनो बोध थाय बे. हवे ते “ सद्ज्ञानसंगत” वैराग्यज सिद्धिना (मोना) साधनरूप बे, एवं प्रतिपादन करता था कहे बे. एतत्तत्वपरिज्ञाना, नियमेनोपजायते ॥ यतोऽतःसाधनं सिद्धे, रेतदेवोदितं जिनैः ॥ ८ ॥ - तत्वना जाणपणाथी या वैराग्य जेथी निश्चयें करी ने थाय बे, ते हेतुथी जिनेश्वर प्रभुए मोना साधनरूप तेनेज को बे. टीकानो जावार्थ उपर कहेलो सद्ज्ञानसंगत वैराग्य, ( पेहेला बे वैराग्य नहीं ) आत्मादिक वस्तुना परिणामी पणाच्या दिक स्वरूपना जाणपणाथी निश्वयें करीने याय ; काने तेथी करीने ते वैराग्यने, रागादिकने जितनारा एवा जिनेश्वरोए मोदना साधनरूप कहेलो . एव ते दशमा अष्टकनुं विवरण समाप्त थयुं. १५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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