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________________ नाषान्तर सदित. २४७ मार्यो.पनी चक्रवर्तीपणुं पामीने एकवीस वार निःब्राह्मणी पृथ्वी करी तेमणे हेषे करी संबंधी बतां एक बीजाने हण्या अने तेने लीधे बीजानो पण घाण वाली नाख्यो माटे क्रोध महा माठी गति आपवावालो तेने त्यजवो. क्रोधे करी क्रोडपूर्व- संयमफल पण नाश पामे . वली नर्कनो सखई एटले नर्कमां लेईजनारो पण क्रोध बे. माटे क्रोधने बमवो अर्थात् कोई उपर क्रोध करवो नही. ४७ ॥ अथ मान विषे ॥ ॥ विनय वनतणी जे मूल शाखा विमोडे, सुगुण कनककेरी शृंखलाबंध तोडे ॥ जनमद करि दोडे मान ते मत्त हाथी, निजवश करि ले जे अन्यथा दूरएथी॥४॥ नावार्थ:- जे विनयरूपीया वननी मूल शाखाने मरमी नाखे अर्थात् विनयनो समूलो नाश करे, वली जे उत्तमगुणरुपी सोनानी सांकल ने तोमी नाखे, एवो मानरूपीयो मस्त हाथी अहंपदे मगरुरीथी दोमा दोड करे अर्थात् विनय अने उत्तम गुणोनुं नाश करवावाझुंज मान , तेने तुंपोताने खाधिन करी खेजे, कारणके एने (मानने) वश कर्या विना एके गुण निपजे नहीं,अर्थात् ज्यांसुधी मान (अहंपद) ने त्यांसुधी सर्व गुण विनयादि दूर रहे . अहीं बाहुबलनो दृष्टांत जाणवो. ज्यारे एमणे मान मुक्युं त्यारेज केवलज्ञान उपन्यु. ए वार्ता प्रसिद्ध होवाथी अहीं लखी नथी. ४ए ॥विषद विष समो ए मान ते सर्प जाणो, मनुज विकल होवे एण डंके जडाणो॥ इद न परिदस्यो जोमान र्योधने तो, निज कुल विणसाड्योमानने जे वदंतो ५० नावार्थः- आकरा ( हलाहल ) विष तथा सर्पना जेवं मानने जाणवू, ए मानना जोगे करी मनुष्य विकल थाय-गजराय, श्रर्थात् ए मनरूपी सर्पने डंके करी चेतन जड श्रयो तेने जे दुर्योधने तो रा ( हलाहलय विकल थाय ने जे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003685
Book TitleSuktavali yane Suktmuktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1911
Total Pages368
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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