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________________ १०२ सूक्तमुक्तावली धर्मवर्ग जेथी था लोक अने परलोकमां सुख संपत्ति प्राप्त थवा उपरांत मोदसुख मलतां कांई पण वार लागनार नथी. २४ ॥अथ त्रिकरण शुद्धि विषे ॥ जग जन सुखदाई चित्त एवं सदाई, मुखे अति मधुराई साच वाचा सुहाई ॥ वपु परहित देते त्रय ए शुभ जेने, तप जपव्रत सेवा तीर्थ ते सर्व तेने ॥२५॥ लावार्थ-जगतना जीवने सुख थाय एबुं हमेशां जेनुं मन बे; मुखे घणीज मीठी अर्थात् अमृत सरखी, शोजनीक अने साची वाणी बोले; वली आ काया ले ते परने उपकार करवाने कामनी ने अने ते प्रमाणे जे करे, एम त्रणे (मन वचन काया) जेनां शुकने अर्थात् ए त्रिकरण शुद्धि जेने विषे, तेने तप, जप, व्रत, सेवा, तीर्थयात्रा, ए सर्व लेखे श्रावे. २५ मण वचतनुत्राये गंगज्यूंशु जेने, निज घर निवसंतां निर्जरा धर्म तेने ॥ जिम त्रिकरण शुझे औपदी अंब वाव्यो, घर सफल फलंतो शील धर्मे सुहाव्यो॥२६॥ जावार्थ-मनजोग, वचनजोग अने कायजोग, ए त्रणे गंगानां पाणी जेवां जेनां निर्मल बे; तेने पोताना घरमां रदेवा बतां पण निर्जरा धर्म ले (अर्थात् तेनां मनोवांडित सफल थतां ते निजरा करी अदय सुख पण प्राप्त करी शके डे); जेवी रीते पांमवनी स्त्री जौपदीए त्रिकरण (मन, वचन अने कायानी ) शुहताये करी आंबो वाव्यो तो ते फल्यो अर्थात् तेने अकाले फल लाग्यां अने तेना सीलन महात्म्य फलकी नीकल्युं, एटले तेनी धारणा पार पमी अने वाह वाह कहेवाई. १ौपदीए आंबो वाव्यो अने तेनां फल वझे तापसोने जमाड्या ए वात अन्य दर्शनी ( मिथ्यात्वी) मां कहेली . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003685
Book TitleSuktavali yane Suktmuktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1911
Total Pages368
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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