SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नाषान्तरसहित. ए३ इंजराजा विगेरे अनेक राजा राणाने जीतवावालो तथा सर्व संपतिनो नायक जे महारो पिता, तेने तुं मारवा मागे ! सैन्य लाई सन्मुख आवेला शत्रुप्रत्ये नमावी महारा पितानी मेलवेली कीर्तिने तुं कलंकित करवा छे , माटे तुं अमारी मसलतमां कांई पण कामनो नथी. विनीषणे तेने कडं के, हुं शत्रुनो ल. गारे पक्षपाती नथी. कुलनाश करनारो पुत्ररूपे तुं शत्रु उत्पन्न थयो बु. ए विगेरे घणी रीते तेने कयु. पठी वली विनीषणे रावणने कह्यु के, पुत्रनी शिखामण तथा तहारा पोताना चरित्रोथी तुं थोडाज दिवसमां नाश पामीश, तेथी मात्र मने पुःख थवानुं देखाय . एवं सांजलीने अतिक्रोधमां श्रावी हाथमां खड़ग लेई रावण मारवा उव्यो. तेने कुंजकर्ण तथा इंसजिते वचमां पमी मुकाव्यो. त्यारपडी रावण बोल्यो के, तुं महारी नगरीथी बाहार नीकल, तुं श्रमिनी पेठे सर्व खानारो वं. नाई बतां पण अन्याई रावणनो त्याग करी विनीषण श्रगीबार श्रदोहिणी राक्षसने लेई न्यायवंत रामने मल्यो, अनुक्रमे राम अने रावण वच्चे युद्ध थयु. न्याये करी रामनो जय थयो अने अन्याय थकी रावण मरण पाम्यो. ए संबंधी विशेष हकी. कत जैनरामायणथी जिज्ञासुए जाणी लेवी. ॥श्रथ न्यायधर्मविषे॥ ॥ हय गय न सदाई यु: कीर्ती सदाई, रिपुविजय वधाई न्याय ते धर्मदाई॥ धरमनय धरे जेते सुखे वैरि जीपे, धरमनय विहूणा तेहने वैरि कोपे ॥१॥ नावार्थ- युझनेविषे हमेशा कीर्ती मेलववामां हाथी अने घोडा साह्यकारी थता नथी पण शत्रुने जीती जय मेलववानी वधामणी तो न्यायधर्मथी मले बे; न्यायधर्मना रागी होय डे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003685
Book TitleSuktavali yane Suktmuktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1911
Total Pages368
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy