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________________ GG सूक्तमुक्तावली धर्मवर्ग ॥ मलयगिरि कडे जे जंबुलिंबादि सोई, मलयजतरु संगे चंदना तेद दोई॥ ईम लदिय वमाश्युं कीजिये संग रंगे, गजशिरचडि बेठी ज्यूं अजा सिंहसंगे॥१६॥ नावार्थ- मलयाचल पर्वतने कांठे ( तेनी पासे-तेना उपर) जे जांबु अने लींबडा विगेरेनां वृदो बे, तेमां मलयतरु एटले चंदनना वृदना संगने लीधे सुगंधपणुं थाय जे; वली जेम बकरी सिंहनी संगतथी हाथीना मस्तक उपर चढी बेठी तेम उत्तमनी संगते उत्तमता प्राप्त थाय, माटे रंगे एटखे आदर पूर्वक उत्तमनी सोबत करवी. (कडं बे के, " सोबते असर" अर्थात् जेवो संग तेवो रंग बेसे बे. माटे नीच, हलकट, निर्गुणीनी संगत करवी नही अने उत्तम गुणग्राहीनी संगत करवी, के जेथीकरीने बहुमान पामीये.) ॥अथ न्याय विषे॥ जग सुजस सुवासे न्यायलबि उपासे, व्यसन उरित नासे न्यायथी लोक वासे ॥ ईम हृदय विमासी न्याय अंगी करीजे, अनयः अपदरिजे विश्वने वश्य करीजे ॥१७॥ नावार्थ-जगतने विषे न्यायथी लोकवासे अर्थात् लोकोमा सुजस कदेतां सारो जस पामे तथा लदिम उपार्जन करे अने व्यसने करी जला-रुडां जे मनुष्य ते वेगला नासे, लो कमां जसवाद न पामे; एम हृदयमां विचारीने न्यायनो मार्ग अंगीकार करवो भने अन्याय (अनर्थ) नो मार्ग बमीने विश्वने वश कर. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003685
Book TitleSuktavali yane Suktmuktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1911
Total Pages368
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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