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(२) प्रीति, तेहनी तो जगमाय प्रतीति, खलनी तो वि परीत रीति ॥ वि०॥६॥ दे एम देह करी विश्वा स, वह्यो जार जननीयें तास॥ते तो एमही उदरे दशमास ॥ विण ॥७॥ एम रटती फीरे वनमांही, तास संग सखी नहि पाहि ॥ पडतां रहे वृक्ष संवा हि ॥ विण॥ ७ ॥ कहे हृदयने रे चंड, कांश्न होय विरहे शतखंडकेम वहीश तुं पुःख करंगविण॥ ए॥ अयि प्राण कहुं बुं तुम्म, नहिं वालम निकट निस्सम्म ॥ कहेवाशो केहना इम्म ॥ वि०॥१०॥ कांई सरजी एणे संसार, निर्नागिणी एहवी नारि॥जे ह तजी एम नरतार ॥ वि०॥११॥रे धरणी न दे कां माग, पियु विरह वाई गयो खाग ॥ जू कपटी ए लाध्यो शो लाग॥ वि०॥ १२ ॥ ए वनमां कव ण श्राधार, पीयर के कोष हजार॥गति के करि श किरतार ॥ वि०॥ १३ ॥ पुरुषे पण नोण्यो प्रेम, गयो वालिम मूकी एम ॥ तस रूंधी न राख्यो केम ॥ वि० ॥१४॥ यश् वैरण निंद पुरंत, जेणे राख्यो उलवी कंत ॥ एम कही नमया विलपंत ॥ वि०॥ १५॥ पूरवे में कीधां पाप, होशे दीधा कोश्ने शा प॥तेह प्रकट्या आपो आप ॥ वि० ॥ १६ ॥ दीधा
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